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________________ ७४ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका वैशेषिक दर्शन के महत्त्व के सिद्धांत : (१) पीलुपाकवाद : वैशेषिक अवयवीरुप पार्थिव वस्तु में पाक न मानते हुए अवयवी के समवायिकारणरूप अन्त्य अवयव पार्थिव परमाणुओं में ही पाक मानते है । जब कि, नैयायिक अवयवी में ही पाक होता हैं, ऐसा मानते हैं, इसलिए वैशेषिको का 'पीलु (परमाणु) पाकवाद' का और नैयायिको का ‘पीठर (अवयवी) पाकवाद' का सिद्धांत हैं । न्यायसिद्धांत मुक्तावली, व्योमवती, न्यायकंदली आदि ग्रंथों में दोनों वाद की विचारणा की गई हैं । (२) ईश्वरवाद : नैयायिको की तरह ही वैशेषिक ईश्वर को जगत्कर्ता मानते है । यद्यपि वैशेषिक सूत्रो में ईश्वर का स्पष्ट उल्लेख नहीं दिखाई देता है । उत्तरकालीन न्याय-वैशेषिको का ईश्वर के विषय में महत्त्व का सिद्धांत है कि, परमाणुओं का आद्यकर्म (उगति) ईश्वरकारित है । जब कि, श्रीकणाद तो कहते है कि, परमाणुओं का आद्य कर्म अदृष्टकारिका है।(१५५) तदुपरांत उत्तरकालीन न्याय-वैशेषिको का सिद्धांत हैं कि वेद ईश्वकृत हैं । जब कि श्रीकणाद तो कहते हैं कि वेद के वाक्य बुद्धिमान पुरुषने लिखे हुए होने चाहिए ।९५६) वैशेषिक - दर्शन के ग्रंथ - ग्रंथकार :(१५७) श्री कणाद ऋषि ने "वैशेषिक सूत्र" नाम के ग्रंथ में द्रव्यादि पदार्थों का निरूपण किया है । वैशेषिक दर्शन का वह आद्यग्रंथ है । वह १० अध्यायो में विभक्त हैं । प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं । वैशेषिक सूत्रो के भाष्यकार के रुप में श्री आत्रेय की गणना होती हैं । जैन दार्शनिक ग्रंथों में उसका निर्देश किया हुआ दिखाई देता है । तदुपरांत, सांप्रदायिक ग्रंथों में अज्ञातकर्तृक वृत्तिओं में श्री आत्रेय की व्याख्या का अनेक स्थान पर उल्लेख उपलब्ध होता हैं । परन्तु उसका भाष्य हाल में उपलब्ध नहीं होता हैं । केवल ग्रंथो में से सूचन मिलता है । वैशेषिक सूत्रो के उपर विस्तृत 'रावण भाष्य' भी था। हाल में वह उपलब्ध नहीं होता है । श्री उदयनाचार्य अपने 'किरणावली' ग्रंथ में (प्रशस्तपाद भाष्य से भी) रावणभाष्य को विस्तृत बताते हैं । श्री प्रशस्तपाद का वैशेषिक सिद्धांतो का निरुपण करनेवाला "पदार्थ धर्मसंग्रह" ग्रंथ है । हाल में वह "प्रशस्तपाद भाष्य" के रूप में प्रसिद्ध हैं । यह ग्रंथ वैशेषिक दर्शन का प्रामाणिक और सर्वमान्य ग्रंथ हैं । उसमें विशेष से परमाणुवाद, जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय, प्रमाण और गुणो का विस्तृत विवेचन किया गया हैं । प्रशस्तपाद भाष्य के आधार पर श्री चन्द्र नामके आचार्यने "दस पदार्थी" नामके ग्रंथ की रचना करके द्रव्यादि षट्पदार्थो से अतिरिक्त शक्ति, अशक्ति, सामान्य - विशेष तथा अभाव नाम के चार नवीन पदार्थ स्वीकृत किये हैं । प्रशस्तपाद भाष्य ग्रंथ वैशेषिक दर्शन के सिद्धान्तो का आकर ग्रंथ हैं । उस ग्रंथ के उपर अनेक आचार्यों की टीकायें उपलब्ध होती हैं । श्री व्योमशिवाचार्य रचित "व्योमवती" प्रशस्त भाष्य की सब से प्राचीन टीका है । श्री व्योमशिवाचार्यने वैशेषिको को मान्य प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से अतिरिक्त शब्द प्रमाण को भी स्वतंत्र प्रमाण के रूप में माना हैं ।(१५८) श्री उदयनाचार्य ने प्रशस्तपाद भाष्य के रहस्यो को स्पष्ट करने के लिए "किरणावली" व्याख्या लिखी है । श्रीधराचार्यने भाष्य के उपर "न्यायकंदली" नामकी टीका रची है । न्यायकंदली टीका के उपर श्रीपद्मनाभ मिश्रकृत "न्यायकंदलीसार" और जैनाचार्य श्री राजशेखरसूरिजी कृत "न्यायकंदलीपंजिका" टीका है । भाष्य के उपर श्री वत्सकृत "न्यायलीलावती" टीका भी है । श्री वल्लभाचार्यने "न्यायलीलावती ग्रंथ" की रचना की थी, जो वैशेषिक सिद्धांतो का भंडार माना जाता 155. ...अणूनां मनसश्चाद्यं कर्मादृष्टकारितम् । (वै.सू. ५-२-१३) । 156. बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे (वै.सू. ६-१-१) । 157. यह विभाग भारतीय दर्शन पुस्तक में से संकलित किया है ।। (वै.सू.५-२-१३) । 158. यद्यपि औलुक्यशासने व्योमशिवाचार्योक्तानि त्रीणि प्रमाणानि (तथापि श्रीधरमतापेक्षया अत्र उभे एव निगद्यते (षड्.समु.लघुवृत्ति पृ. ६३, चौखम्बा संस्करण) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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