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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
अवस्था में कर्मयोग से प्राप्त हुए शरीर में व्याप्त बनकर ही रहता हैं और मोक्षावस्था में भी अंतिम भव में जो शरीर हो उस शरीर के तीसरे भाग प्रमाण अवगाहना में आत्मप्रदेशो को व्यापकर रहता हैं । (मोक्षावस्था में शरीर तो नष्ट होता है, परन्तु अंतिम भव में प्राप्त शरीर के तीसरे भाग प्रमाण आत्मप्रदेश में व्याप्त होकर रहता है ।) इसलिए आत्मा शरीरपरिमाणी हैं। विभ
वभवाद - अणवाद की समीक्षा रत्नाकरावतारिका आदि जैन दार्शनिक ग्रंथो में विस्तार से की गई हैं। जिज्ञासुओं को वहाँ से देख लेने का सूचन हैं ।
यहाँ उल्लेखनीय है कि, जैनदर्शन ने जगत में प्रवर्तित सभी वादो की परीक्षा - समीक्षा अपने आगमिक और दार्शनिक ग्रंथो में विस्तार से पर्याप्त युक्ति-प्रयुक्तियों से की है और प्रत्येक वादो में अनेकांत दृष्टिसे समन्वय करने का प्रयत्न किया है । जैनदर्शन का स्पष्ट संदेश है कि, "जहाँ एकांत हैं वहाँ विरोधादि अनेक दोषो की प्रसक्ति है और जहाँ अनेकांत है, वहाँ एक भी दोष का संभव नहीं हैं ।" इस संदेश को युक्ति, तर्क और प्रमाण के आधारपूर्वक जगत में बहता किया है । निराग्रह बनकर उसको निहारा जायेगा तो नवीन तत्त्व की प्राप्ति होगी और पदार्थो का सच्चा बोध होगा, उसमें शंका को कोई स्थान नहीं हैं । विस्तार भय से यहाँ रुकते हैं । सत्यार्थी जिज्ञासुओं को ग्रंथकलाप का अवगाहन करने का सूचन हैं । यहाँ याद रखे कि, तत्त्व विषयक अध्ययन केवल कोरी विद्वत्ता पाने के लिए, हल्का होने के लिए, मान को पोषण देने के लिए, नया जानने का शौक पूरा करने के लिए इत्यादि इहलौकिक प्रयोजनो को सिद्ध करने के लिए नहीं हैं । परन्तु सत्य की गवेषणा करके सत्यपथ के उपर चलके भवसागर से पार उतरने के लिए हैं। जैनदर्शन के ग्रंथ-ग्रंथकार :
प्रभु महावीर स्वामि के मुख्य शिष्य श्री गणधर भगवंतो ने द्वादशांगी (बारह अंग) की रचना की थी, उसे जैनदर्शन के आकर ग्रंथ कह सकते हैं । उसमें जगत के समस्त पदार्थो का निरूपण हुआ हैं । काल के प्रभाव से श्रुत विच्छेद होता गया । पहले ८४ आगम ग्रंथ थे । हाल में उनमें से ४५ आगमग्रंथ उपलब्ध है । "जैनदर्शन का ग्रंथकलाप" नाम के परिशिष्ट में उसके बारे में जानकारी दी गई है । अन्य जैनाचार्यो के ग्रंथो की जानकारी भी उसी परिशिष्ट में दी गई है । यहाँ केवल आंशिक माहिती (जानकारी) बताई गई हैं ।
जैनदर्शन के ग्रंथ पहले बताये अनुसार चार प्रकार के अनुयोग में बुने हुए हैं । एक-एक अनुयोग के स्वतंत्र ग्रंथ भी रचे गये हैं । जैनदर्शन में ४५ आगम का अनुसरण करके रचे गये ग्रंथ "प्रकरण ग्रंथ" के रूप से पहचाने जाते है । सैंकडो प्रकरण ग्रंथो की रचना हुई हैं। ___ पू. वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी महाराजाने 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' (स्वोपज्ञ भाष्य सहित) आदि ग्रंथो की रचना की है । जैनदर्शन का वह आकर ग्रंथ है । उसमें जीवादि तत्त्वो का विस्तार से सुव्यवस्थित और सुसंबद्ध वर्णन किया जाता है। उसके उपर पू.श्री.सिद्धसेन गणिवर्य की विस्तृत टीका भी हैं। वादी शिरोमणि पू.आ.भ.श्री.वि.सिद्धसेनसूरीश्वरजी महाराजा ने दर्शन प्रभावक “सम्मति तर्क" नाम के दार्शनिक महान ग्रंथ की रचना करके जैनदर्शन के स्याद्वाद - सिद्धांत की समुचित प्रस्थापना की है । उससे अतिरिक्त उन्हों ने अनेक ग्रंथो की रचना की हैं । सिद्धांती के रूप में प्रसिद्ध श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी ने “विशेषावश्यक भाष्य" नाम के एक महान ग्रंथ की रचना की हैं । ३६०३ श्लोक प्रमाण उस ग्रंथ के ऊपर २८००० श्लोक प्रमाण बृहद्वृत्ति की रचना मलधारी पू.आ.भ. श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने की हैं । इस ग्रंथ में पांच ज्ञान, गणधरवाद आदि अनेक पदार्थो की विस्तार से विचारणा की गई हैं । पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजाने १४४४ ग्रंथो की रचना की थी, उसमें से हाल में ७० ग्रंथ उपलब्ध होते है। उसकी जानकारी पूर्वनिर्दिष्ट
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