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________________ ८८ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका विचारणाओं को आंशिकरूप से संकलित करके विभिन्न परिशिष्ट में संगृहीत की गई हैं ।) यद्यपि, जैनदर्शन के कर्मवाद का संपूर्ण अभ्यास करना हो तो एक दशाब्दि भी कम हो ऐसा है । फिर भी उसकी विभावनाओं को संकलित करके यहाँ दी गई हैं । जिससे कर्म विषयक थोडा सा बोध वाचको को हो सके और जो सर्वांगीण अभ्यास की रुचि प्रकट करने में निमित्तभूत भी बन सके ऐसा है । यहाँ याद रखना आवश्यक हैं कि, कर्म से ही आत्मा की भवपरंपरा और उसमें से रा अविरत रुप से चल रही हैं । इसलिए भवपरंपरा का अंत लाना हो उन्हें कर्म का स्वरूप, कर्मबंध के कारण, कर्मबंध की प्रक्रिया, कर्म का उदय और क्षय, कर्म के फल, कर्मो की स्थितियाँ, कर्मफल की तीव्रता-मंदता, कर्मबंध के चार प्रकार और उसके कारण, कर्म की विविध अवस्थायें और कर्म के नाश की प्रक्रिया आदि को जानना अति आवश्यक है । इसलिए ही ये आवश्यक बातों को संकलित करके परिशिष्ट में समाई गई हैं। यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, जगत में साक्षात् दिखाई देती विचित्रतायें - विषमताओं के कारणो की गवेषणा करते-करते अनेक विचारको ने अनेक वादो की प्रस्थापना की है । जिसमें नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद, कर्मवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद और पुरुषवाद ऐसे अनेक वादो का अन्तर्भाव होता हैं । एकांत मान्यता में ढले हुए उन वादों से जगत वैचित्र्य का सत्य बोध नहीं होता है परन्तु बहोत विरोध खडे होते हैं, कोई भी एकांतवाद विरोधादि दोषो से मुक्त नहीं हैं। (नियतिवाद आदि वादो का आंशिक स्वरूप प्रस्तुत ग्रंथ की श्लोक-१ की टीका में प्रतिपादित किया गया हैं । विशेष स्वरूप उपासक दशांग, भगवती सूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र आदि जिनागम तथा पू.आ.भ. श्री हरिभद्रसूरिजी कृत शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि ग्रंथो में निरुपित किया गया हैं ।) विरोधादि दोषो से सर्वथा रहित अनेकांतदृष्टि में जगत वैचित्र्य में कोई एक कारण नहीं हैं, परन्तु कुल मिला के पांच कारण हैं । (१) स्वभाव, (२) नियति, (३) काल, (४) कर्म और (५) पुरुषार्थ। जगत के कोई भी कार्य की निष्पत्ति इन पांच कारणो से होती हैं । पांच कारणो में से एक की भी अनुपस्थिति हो तो कार्य निष्पत्ति नहीं हो सकती हैं । कार्य के कारण के रुप में कोई एक को ही मानना वह मिथ्याधारणा हैं । क्योंकि, जगत में होती प्रतीति से वह विरुद्ध हैं। जगत में कार्य निष्पत्ति के प्रवाह में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता हैं कि, स्वभावादि पांचो कारणो के सदभाव में कायोत्पत्ति होती हैं । हाँ, ऐसा बन सकता हैं कि. उन पांच में से कोई कारण की मख्यता हो और अन्य कारणो की गौणता हो । आत्मविकास की सीडी चढे हुए साधक को जो क्रम से गुणप्राप्ति और अंत में मोक्षप्राप्ति होती हैं, उसमें तत् तत् अवस्था में पांच में से एक कारण की मुख्यता और अन्य कारणो की गौणता होती हैं । इसलिए कोई भी कारण की अवहेलना हो सके ऐसा नहीं हैं । इसलिए ही प.आ.भ. श्री सिद्धसेन दिवाकरसरिजीने स है कि, कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव समासओ होति सम्मत्तं ।।३-५३।। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म) और पुरुषरूप कारण के बारे में एकांतवाद मिथ्यात्वरूप है और वही वाद समास से अर्थात् परस्पर सापेक्षरुप से एकटे होने से सम्यक्त्व बनता हैं । ___ इसी विषय की शास्त्रवार्तासमञ्चय आदि ग्रंथो में विस्तृत विचारणा की गई हैं और चर्चा के अंत में कहा गया है कि, कोई भी कार्य मात्र एक कारण से उत्पन्न नहीं होता है; परन्तु कारणसामग्री के बल से उत्पन्न होता हैं ।(१४०) (३) शरीरपरिमाणवाद : जैनदर्शन के मतानुसार आत्मा विभु (सर्वव्यापक) नहीं है या अणु भी नहीं है । आत्मा शरीरपरिमाणी है । संसारी 140. अत: कालादयः सर्वे समुदायेन कारणम् । गर्भाद: कार्यजातस्य विज्ञेया न्यायवादिभिः ।। न चैकैकत एवेह क्वचित् किञ्चिदपीक्ष्यते। तस्मात्सर्वस्य कार्यस्य सामग्रीजनिका मता ।। (शास्त्रवार्ता समु. २/७९-८०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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