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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय
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(५२) पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष की स्थापना शैली नीचे अनुसार से भी दिखाई देती है।
अस्तु तर्हि क्षणिकविज्ञाने गौरवान्नित्यविज्ञानमेवात्मा अविनाशी वाऽरेऽयमात्मा सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इत्यादिश्रुतेरिति चेत् । न तस्य सविषयत्वासंभवस्य दर्शितत्वान्निविषयस्य ज्ञानत्वे मानाभावात्सविषयस्याप्यननुभवात् । (मुक्तावली कारिका - ४९ की टीका) भावार्थ :
पूर्वपक्ष : क्षणिक विज्ञान स्वरुप आत्मा मानने में चाहे गौरव हो तो आत्मा को नित्यविज्ञान स्वरुप ही मानो। "अविनाशी...." इत्यादि श्रुति भी इसकी ही साक्षी देती है।
उत्तरपक्ष : (नैयायिक) ऐसा नहीं करना । क्योंकि (पहले कहे अनुसार नित्य विज्ञान में सविषयत्व का अभाव बताया गया है। निर्विषयक ज्ञान में प्रमाण नहीं है तथा वह सविषयक हो वैसा अनुभव भी होता नहीं है।
(यहां "अस्तु" से "चेत्" के बीच पूर्वपक्ष है । "न" से उत्तरपक्ष खंडन करते है। ऐसे स्थान पे उत्तरपक्षकार ने स्वतत्वनिरुपण में एक अन्यवादि की मान्यता का खंडन करने के बाद दूसरे कोई वादि की मान्यता का खंडन करना हो तब उस दूसरे वादि की मान्यता को "अस्तु तर्हि....." से "चेत्" के बीच रखते है और बाद में तुरन्त उत्तरपक्षकार उसका खंडन शुरु करते है। (५३) टीकाकारश्री अपने तत्त्वनिरुपण में अपनी मान्यता सत्य है या स्वयं जो निरुपण कर रहे है वह ग्रंथ का अनुसरण करता है वह बताना हो तब "अत एव" से प्रारंभ करते होते है।
___ अत एवोपमानचिन्तामणौ सप्तपदार्थभिन्नतया शक्तिसादृश्यादीनामप्यतिरिक्तपदार्थत्वमाशङ्कितम् । (मुक्तावली कारिका – २ की टीका ।) (५४) शंकाकार की शंका का बिलकुल निषेध करना हो तथा उसको बोलता बंध करना हो तब नीचे की शैली दिखाई देती है।
___ ननु सत्त्वेऽपि सत्वान्तरकल्पने धर्माणां धर्मो न भवति इति वचो विरुध्यते । मैवं वोचः । अद्याप्यनभिज्ञो भवान् स्याद्वादामृतरहस्यानां यतः, स्वधर्मपेक्षया यो धर्मः सत्त्वादि स एव स्वधर्मापेक्षया धर्मी एवमेवानेकान्तात्मकव्यवस्था उपपत्तेः ।
"ननु" से शंकाग्रंथ है और “मैवं वोचः" से उत्तरपक्षकार का समाधान शुरु होता है। (५५) टीकाकार किसी तत्त्व या कार्य-कारण के भाव का निश्चय करने के बाद अनुपपत्तिओ के (असंगतिओ के) या शंकाओ के परिहार के लिए निष्कर्ष को बताता विधान करे तब "इत्थं" से पंक्ति का प्रारंभ करते दिखाई देते है।
इत्थं च यत्र मङ्गलं न दृश्यते तत्रापि जन्मान्तरीयं तत्कल्प्यते यत्र सत्यपि मङ्गले समाप्तिर्न दृश्यते तत्र बलवत्तरो विघ्नो विघ्नप्राचुर्यं वा बोध्यम् (मुक्तावली कारिका १ को टीका) (५६) टीकाकार चर्चा के अंत में एक विधान करने के बाद, उसके अंतर्गत ही आते दूसरे निष्कर्षवाचि - निर्णायक विधान को बताते हो तब "किंच" से प्रारंभ करते दिखाई देते है। उस स्थान पे अन्य मत का खंडन भी हो जाता है।
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