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________________ ५८२ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय ग्रहण करके अर्थ करना। (४९) कंई बार उत्तरपक्षकार स्व-तत्त्व निरुपण के अवसर पर पूर्वपक्ष की बात को मन में ही रखकर, उसको शंकाग्रंथ के रुप में रखे बिना उसकी मान्यता का खंडन कर देते होते है। ऐसे स्थान पे पूर्वपक्ष की मान्यता को ढुंढने का प्रयत्न समाधान ग्रंथ = उत्तरपक्ष की बात में से करना पडता होता है। थोडा प्रयत्न करने से समाधानग्रंथ में से पूर्वपक्ष की मान्यता का खयाल आ जाता है। (५०) कंई बार पंक्ति का प्रारंभ "न" या "नहि" होता है। परंतु "न" या "नहि" का अन्वय क्रियापद के साथ या यथायोग्य पद के साथ करने का होता है। ऐसे स्थान पे क्रियापद न हो तो अध्याहार से यथायोग्य क्रियापद ग्रहण करके. उसके साथ "न" या "नहि" का अन्वय करने का होता है _____ नहि लौकिकसंनिकर्षस्थले प्रत्यक्षमिव सत्प्रतिपक्षस्थले संशयाकारानुमितिः प्रामाणिकी - येनानुमिति - भिन्नत्वेनापि विशेषणीयम् । (मुक्तावली, कारिका –७२ की टीका ) भावार्थ : लौकिक संनिकर्ष के स्थान पे प्रत्यक्ष की तरह सत्प्रतिपक्ष स्थान में संशयाकार अनुमिति प्रामाणिक नहीं है कि, जिससे (लक्षण में) अनुमितिभिन्नत्व भी विशेषण जोडना पडे । (यहां "अस्ति" क्रियापद को अध्याहार से ग्रहण करके, उसके साथ "न" का अन्वय किया है।) सूचना : सामान्यतः नियम है कि श्लोक में या पंक्ति में क्रियापद का प्रयोग न किया हो तो अध्याहार से भवति या अस्ति क्रियापद ग्रहण किया जाता है। (५१) कोई बार मूल ग्रंथकारने अपने श्लोक या गाथा में शंकाओ का समाधान दिया होता है। उस वक्त मूल ग्रंथकारने शंकाओ को मन में रखकर श्लोक में या गाथा में समाधान दिया होता है। परंतु उस शंकाओ को शंकाग्रंथ के रुप में रखते नहीं है । तब टीकाकार श्लोक के पहले अवतरणिका या उपोद्घात के रुप में उस शंकाग्रंथ को ननु....... इत्याशङ्कायामाह या "ननु...... अत आह" से बताते होते है। नन्वविधिनाऽपि चैत्यवन्दनाद्यनुष्ठाने तीर्थप्रवृत्तिरव्यवच्छिन्ना स्यात् । विधेरेवान्वेषेण तु द्वित्राणामेव विधिपराणां लाभात् क्रमेण तीर्थोच्छेदः स्यादिति तदनुच्छेदायाविध्यनुष्ठानमप्यादरणीयमित्या शंकायामाह तित्थस्सुच्छेयाइ वि नालंबणमित्थ जं स एमेव । सुत्तकिरियाई नासो, एसो असमंजसविहाणा ॥१४॥(योगविंशिका) (उपर गाथा १४ में मूल ग्रंथाकारश्रीने शंकाओ का समाधान दिया है। उसे शंकाओ को शंकाग्रंथ के रुप में ननु से इत्याशङ्कायामाह के बीच टीकाकारश्री ने रखी है। सूचना : _ ननु...... अत आह...... की शैली न्यायसिद्धांत मुक्तावली की कारिक ६९ के पहले है । वह देख लेना ।) यहां "ननु" से शंकाग्रंथ "और" आह से समाधान के रुप में श्लोक या गाथा होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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