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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय
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(४१) कोई बार पूर्वपक्ष की पेशी उत्तरपक्षकार स्वयं ननु इत्यादि शंका के प्रारंभसूचक शब्द रखे बिना ही करते है। उसके बाद "अत्र प्रतिविधीयते" या "अत्रोच्यते" कहकर पूर्वपक्ष की मान्यता के खंडन का उत्तरपक्षकार प्रारंभ करते होते है। (४२) कंई बार शंका का प्रारंभ स्यादेतत् से होता है और "अत्रोच्यते" या "अत आह" से समाधान का प्रारंभ होता है।
स्यादेतत् कासां प्रकृतीनां किं संक्रमपर्यवसानं येन तत उर्ध्वमभवन् प्रतिपाते च पुनरपि भवन्संक्रमः सादिर्भवेत् ? अत आह सातानन्तानुबन्धियश:कीर्तिद्विविधकषाय शेष प्रकृतिद्विदर्शनानां यतिपूर्वा - प्रमत्तसंयताद्याः क्रमशः क्रमेण, संक्रमकाणामन्तिमाः पर्यवसानभूता वेदितव्या (पंच संग्रह, भाग-२, संक्रमकरण गाथा – ९, टीका) (४३) कोई बार "ननु" से शंका का और "नैतदेवं" से समाधान का प्रारंभ होता दिखाई देता है।
"ननु......, नैतदेवं" (४४) कोई बार ननु से पूर्वपक्ष का प्रारंभ होता है और पूर्वपक्ष के समाप्तिसूचक पद का अभाव भी होता है। उत्तरपक्षकार "प्रत्युक्तं" कहकर पूर्वपक्ष की बात का खंडन कर देते होते है। वैसे स्थान पे नीचे अनुसार की शैली देखने को मिलती है।
ननु.... प्रत्युक्तम्... (४५) उत्तरपक्षकार स्वयं ही किसी अन्य के मत को मन में उपस्थित करके, उसको शंकाग्रंथ = पूर्वपक्ष के रुप में रखकर तथा उस मत के समाप्तिसूचक "कश्चिदिति" शब्द रखकर "आह" से समाधान का प्रारंभ करते होते है। वैसे स्थान पे नीचे अनुसार की शैली देखने को मिलती है।
ननु.... किश्चिदित्याह -
(यहां "ननु" से "कश्चिदिति" के बीच शंकाग्रंथ = पूर्वपक्ष और “आह" से समाधानग्रंथ = उत्तरपक्ष का प्रारंभ हुआ है।) (४६) कोई बार "न" और "इति वाच्यं" के बीच शंकाग्रंथ पूर्वपक्ष रखकर "न इति वाच्यं" कहकर उत्तरपक्ष खंडन करते होते है। वैसे कई बार शंकाग्रंथ के अंत में “इति न वाच्यं" "इति न वक्तव्यं" "इति न शङ्कनीयम्" एसे खंडनसूचक पद उत्तरपक्षकार के द्वारा कहे जाते है। (४७) जब प्रतिवादी की बात में बिलकुल अज्ञानता का दर्शन कराना हो तब वह प्रतिवादि की बात को पूर्वपक्ष के रुप में रखकर । "तदेतन्महा........" इत्यादि पदो के द्वारा खंडन कर देते होते है।
नन.... तदेतन्महामोहमूढमनस्कतासूचकम् ।
यहां ननु से शंकाग्रंथ पूर्वपक्ष है तथा तदेतन्महा पद से उत्तरपक्ष का खंडनवाचि पद है। इस पदोच्चारण के बाद उत्तरपक्षकार प्रतिवादि की अज्ञानता को खुली करते होते है। (४८) कई बार न च से पूर्वपक्षग्रंथ का प्रारंभ होता है। उसके अंत में "इति वाच्यं" "इति शङ्कनीयं" इत्यादि पद देखने को मिलते नहीं है। वैसे स्थान पे "इति वाच्यं" इति शङ्कनीयं इत्यादि पद अध्याहार से
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