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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय
स्वात्मप्रत्यक्षत्वेन वैधर्म्यात् । नापीन्द्रियाणां विषयाणां वा गुण उपहतेष्वप्यनु स्मरणदर्शनात् । न चान्यस्य प्रसक्तिरस्ति, अत: परिशेषादात्मसिद्धिः । “प्रयोगश्चात्र" योऽसौ परः स आत्मशब्दवाच्यः इच्छाद्याधारत्वात् । (श्लो. १९, टीका)
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(३५) टीकाकार स्व-तत्त्वनिरुपण के अवसर पर अपनी पेशी स्वमतिकल्पना से नहीं है । परन्तु सुविहित अन्य ग्रंथकारो की भी इस विषय में यही मान्यता है। ऐसा बताने के लिए अन्य ग्रंथ के साक्षीपाठ देते होते है । उस समय “तथोक्तम्” “तदुक्तम्” “यत उक्तम्" "उक्तं च" पठ्यते " तथा चाह" "तथा चोक्तम्" इत्यादि शब्द रखकर साक्षीपाठ का प्रारंभ होता दिखाई देता है . (सभी का अर्थ इसलिए या जिससे अन्य ग्रंथ में कहा है कि....)
'अयमत्र भावः
( ३६ ) किसी वस्तु का निरुपण करने के बाद उसका अंतिम रहस्यार्थ तात्पर्यार्थ बताना हो तब टीकाकार "ततोऽयमत्रार्थः" "इदमुक्तं भवति" "ततोऽयमर्थः " "इदमत्र तत्वम्” "अयं भावः' “अत्रायंभावः” इत्यादि पद रखकर रहस्यार्थ कहने का प्रारंभ करता देखने को मिलता है। (सभी का अर्थ इसलिए यह रहस्यार्थ तात्पर्यार्थ जानना ।)
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( ३७ ) कोई बार किसी वस्तु का निरुपण करने के बाद, उसका अंतिम तात्पर्यार्थ बताने के लिए पंक्ति लिखते है । तब अंत में "इत्यर्थः " " :" "अयं भावः " "एतदर्थ: " ये शब्द रखते होते है । उदा. (६८) मुद्दे में देखना । (३८) कोई बार शंका के प्रारंभसूचक शब्द के रुप में अस्ति शब्द तथा समाप्तिसूचक शब्द के रुप में "इति चेत्" पद देखने को मिलता है और तर्हि शब्द से समाधान का प्रारंभ होता दिखाई देता है ।
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अस्ति च, भवदभिप्रायेण त्रैरुप्यं तत्पुत्रादाविति । अथ भवत्वयं दोषो येषां पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षासत्त्वरुपे त्रैरुप्येऽविनाभावपरिसमाप्तिः नास्माकं पञ्चलक्षणहेतुवादिनां अस्माभिरसत्प्रतिपक्षत्वप्रत्यक्षागमाबाधित विषयत्वयोरपि लक्षणयोरभ्युपगमादिति चेत् ? तर्हि केवलान्वयकेवलव्यतिरेकानु-मानयोः पञ्चलक्षणत्वासंभवेनागमकत्वप्रसङ्गः । (श्लो. ५७, टीका)
( ३९ ) जब पूर्वपक्षकार की बात बिलकुल असत् हो तब अथ से चेत् के बीच पूर्वपक्षकार की बात उत्तरपक्षकार रखते है और तदसत् कहकर खंडन शुरु करते है ।
अथ विपक्षासत्त्व नाभ्युपेयते किं तु साध्यसद्भावेऽस्तित्वमेव साध्याभावे नास्तित्वमभिधीयते न तु ततस्तद्भिन्न मिति चेत् ? तदसत् । एवं हि विपक्षासत्त्वस्य तात्विकस्याभावाद्हेतोस्त्रैरुप्यादि न स्यात् (श्लो. ५७, टीका)
( ४० ) कोई बार उत्तरपक्षकार अपनी बात का विवरण करते करते अंतिम फलश्रुति के उपर आके खडे रहते है, उस वक्त अन्यमतकार की बात अपनी निरुपित बात से भिन्न हो तो उसको याद करके “एवं” या “एतेन” अन्यमतकार की बात को पूर्वपक्षग्रंथ के रुप में रखकर अंत में "इति न युक्तं " " इति प्रत्युक्तं" इत्यादि पद रखकर उत्तरपक्षकार उसका खंडन कर देते होते है । अर्थात् हमारे पूर्व के निरुपण से पूर्वपक्ष की मान्यता का खंडन हो जाता है।
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एतेन ज्ञानविशेषकालविशेषाद्यात्मकत्वमत्यन्ता भावस्येतिप्रत्युक्तम् अप्रत्यक्षत्वापत्तेः (मुक्तावली कारिका - १२ की टीका)
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