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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय ननु यदि क्षणक्षयिणः परमाणवः एव तात्त्विकास्तर्हि किंनिमित्तोऽयं घटपटकटशकटलटुकादिस्थूलार्थप्रतिभास इति चेत् । निरालम्बन एवायमनादिवितथवासनाप्रवर्तित स्थूलार्थावभासो निर्विषयत्वादाकाशकेशवत्स्वप्नज्ञानवद्वेति । ( श्लो. १०, टीका) ( २९ ) कुछ स्थान पे पूर्वपक्ष ग्रंथ - शंका ग्रंथ के प्रारंभ के सूचक अथ ननु आदि कोई शब्द न हो और समाप्तिसूचक‘“इति चेत्” पद होते हैं और ऐसे स्थान पे तदा तर्हि से उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता देखने को मिलता है। ( ३० ) कुछ स्थान पे नीचे अनुसार की शैली देखने को मिलती है - अथ निकर्षग्रहणमेवास्तु सं-ग्रहणं व्यर्थम्, न, सं-शब्दग्रहणस्य सन्निकर्षषट्कप्रतिपादनार्थत्वात् । यहं अथ से पूर्वपक्ष का और न से उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता है । ( ३१ ) एक बात, विकल्प कार्य-कारणभाव या हेतु-फल भाव के अनुसंधान से आगे की बात, विकल्प कार्य-कारणभाव या हेतु-फलभाव का अनुसंधान जोडना हो तब टीकाकार पहले की बात इत्यादि "यदा" से बताते है और बाद की बात इत्यादि तदा से बताते है । ५७९ ज्ञानं च प्रत्यक्षप्रमाणफलम् । यदा तु ततोऽपि ज्ञानाद्धानोपादानादिबुद्धय उत्पद्यन्ते, तदा हानादिबुद्धयपेक्षया ज्ञानं प्रमाणं हानादिबुद्धयस्तु फलं यदा ज्ञानं प्रमाणं, तदा हानादिबुद्धयः फलमिति वचनात् । ( ३२ ) एक वस्तु का निरुपण करने के बाद, उससे विपरीत मानने से क्या आपत्ति आती है । वह बतानी हो तब प्रारंभ में अन्यथा (= यदि इससे विपरीत मानोगे तो दूसरी तरह से मानोगे तो) शब्द को रखकर विपरीत मान्यता से क्या दोष आता है वह बताया जाता होता है । अत्र देशान्तरप्राप्तिशब्देन देशान्तरदर्शनं ज्ञेयम् । अन्यथा देशान्तरप्राप्तेर्गतिकार्यत्वेन शेषवतोऽ-नुमानादस्य भेदो न स्यात् । (श्लो. २२, टीका) भावार्थ : यहां (सामान्यतोदृष्ट अनुमान के उदाहरण में "देशांतर प्राप्ति" शब्द से "देशांतरदर्शन" अर्थ जानना । अन्यथा (यदि देशांतर दर्शन अर्थ नहि मानोगे तो देशांतर प्राप्ति गति का कार्य होने के कारण शेषवत् अनुमान से सामान्यतोदृष्ट अनुमान का भेद नहि रहेगा । (३३) कुछ भेद प्रकार विकल्प है। ऐसा सामान्य से विधान हो जाने के बाद वे भेदो प्रकारो-विकल्पो के नाम देने हो तब पहले "यथा " शब्द रखा जाता है । सा च चतुर्विंशतिभेदा, साधर्म्यादिप्रत्यवस्थानभेदेन " यथा" साधर्म्य, वैधर्म्य... कार्यसमा। (श्लो. ३१ टीका) (३४) किसी तत्त्व का निरुपण करने के बाद, उसकी पुष्टि के लिए तथा शिष्य की बुद्धि को विशद बनाने के लिए अनुमान प्रयोग टीकाकार श्री देते होते है। तब प्रारंभमें "प्रयोगस्त्वयम्” “प्रयोगस्त्वित्थम्” “प्रयोगः पुन:' 'अत्र प्रयोगः " " प्रयोगश्चात्र " " प्रयोगो यथा " ये शब्द कहकर अनुमान प्रयोग बताते होते है । (एक उदाहरण नीचे दिया गया है।) 7744 शरीरविशेषगुणा इच्छादयो न भवन्ति, तद्गुणानां रूपादीनां स्वपरात्मप्रत्यक्षत्वेनेच्छादीनां च Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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