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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय
किंच वर्णानामेवनित्यस्य वक्ष्यमाणत्वात्सुतरां तत्संदर्भस्य वेदस्यानित्यत्वमिति संक्षेपः । (मुक्तावली कारिका – १५० की टीका)
___ (ऐसे स्थान पे जो पूर्वपक्ष की मान्यता का खंडन हुआ हो वह उत्तरपक्षग्रंथ से ढूंढने का प्रयत्न करना है। उपर की पंक्ति में वेद को नित्य माननेवाले मीमांसक की मान्यता का खंडन हुआ है।) (५७) कंई बार पूर्वपक्ष का प्रारंभ "ननु" से तथा उत्तरपक्ष का प्रारंभ "मैवम्" से होता दिखाई देता है। (देखे मुक्तावली कारिका ५६ की टीका) (५८) कंई बार उत्तरपक्षकार अपनी बात करते हो तब बीच में अन्यमतकार को याद करके, इस विषय में
अन्य मतकार की बात उचित नहीं है ऐसा विधान करते होते है वैसे स्थान पे नीचे अनुसार की शैली देखने को मिलती है।
न.... युक्तं...... ।
यहां "न से युक्तम्" के बीच अन्यमत को बताया होता है। जिसे पूर्वपक्ष कहा जाता है। "न युक्तम्" पद उत्तरपक्षकार का होता है। (अर्थात् पूर्वपक्ष की बात उचित नहीं है।) उसके बाद उत्तरपक्षकार पूर्वपक्ष की बात की अनुचितता बताने का कार्य करते होते है। सूचना :
कुछ स्थान पे यही शैली में "न युक्तम्" पद पंक्ति के अंत में भी देखने को मिलता है। (५९) कुछ स्थान पे "स्यादेवम्" "स्यान्मतिः" "स्याद्बुद्धिः" "स्यादियं कल्पना" इत्यादि शब्दो से पूर्वपक्ष का प्रारंभ होता है और "नैवं", "मैवम्" "नेयं कल्पना साधीयसी" इत्यादि शब्दो से उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता है। (६०) कभी पूर्वपक्ष का प्रारंभ "एतेन" शब्द से होता है और "निरस्तम्" "अपास्तम्" "निराकृतम्" शब्द से अंत होता है। ऐसे स्थान पे “एतेन" से “निरस्तम्" आदि शब्दो के द्वारा पूर्वपक्ष का खंडन हो गया ऐसा उत्तरपक्षकार बताते होते है। (६१) कोई बार टीकाकार अपनी मान्यतानुसार तत्त्व का निरुपण करते वक्त, उस विषय में अन्यवादि का मत अपनी मान्यता से भिन्न हो तब उस अन्यवादि के मत को भी बताते होते है। परंतु उस अन्य मान्यता में अस्वारस्य (खुद को अन्यवादि की मान्य नहीं है वह) बताने के लिए अंत में "इत्याह" "इति केचित्" "इति वदन्ति" इत्यादि पद रखते होते है। खास सूचना :
(१) यह शैली न्यायग्रंथो में देखने को मिलती है। जैनदर्शनो के ग्रंथो में भी दूसरे दर्शन के मत को बताते वक्त इस शैली का उपयोग होता दिखाई देता है।
(२) जैनदर्शन की अन्य आगमिक पदार्थो की चर्चा में जब आचार्यो को परस्पर मान्यताभेद हो तो "परे तु" इत्यादि शब्द रखकर अन्य की मान्यता को रखते होते है। परंतु अन्य आचार्य भगवंत सुविहित के रुप में प्रसिद्ध हो तो खंडन करते नहीं है। केवल दोनो मान्यता रखकर अंत में "तत्त्वं तु केवलिगम्यम्" या "तत्त्वं
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