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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय परिशिष्ट - ८ व्याख्या की शैली का परिचय तत्त्व की गहराई तक पहुंचने के लिये.... अन्य असत्य मतो के खंडन के लिये.... विषयगत शंकाओ के परिहार के लिये... शिष्य की बुद्धि को विशद (स्पष्ट) बनाने के लिये... तत्त्व निरुपण करते समय टीकाकार पूर्वोत्तर पक्ष (पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष) की स्थापना करते होते है । उत्तरपक्ष के रुप में व्याख्याकार (टीकाकार) स्वयं होता है । कोई वक्त जगत में वैसे प्रकार का कोई प्रतिवादि न होने पर भी शिष्य की बुद्धि को विशद बनाने के लिए टीकाकार स्वयं पूर्वपक्ष उठाकर, उसको पूर्वपक्षग्रंथ = शंकाग्रंथ के रुप में रखकर, उसका उत्तरपक्ष के रुप में स्वयं खंडन करता है । ५७३ अब टीकाकार पूर्वोत्तरपक्ष की स्थापना कैसी शैली से करते होते है, वह एक-एक उदाहरण लेकर सोचे । (उसमें यही ग्रंथ के उदाहरणो के अर्थ उस-उस पृष्ठ क्रमांक उपर से देख लेना । अन्य उदाहरणो के अर्थ देंगे । ( १ ) ननु कथं सर्वदर्शनानां परस्परविरुद्धभाषिणामभीष्टा वस्त्वंशा: के सद्भूताः भवेयुः येषां मिथः सापेक्षतया स्याद्वादः सत्प्रवादः स्यादिति चेत्, उच्यते । यद्यपि दर्शनानि निजनिजमतेन परस्परं विरोधं भजन्ते तथापि तैरुच्यमाना सन्ति तेऽपि वस्त्वंशा ये मिथः सापेक्षाः सन्तः समीचीनतामञ्चति । ( श्लो. १ टीका) (यहां "ननु से चेत् " तक में पूर्वपक्ष है। उसके बीच के वचनो को शंकाग्रंथ के रुप में पहचाना जाता है। " उच्यते " से उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता है । उसके बाद के वचनो को समाधान ग्रंथ कहा जाता है । भावार्थ : पूर्वपक्ष: सभी दर्शन परस्पर विरुद्ध बोलते है । परस्पर विरुद्ध बोलते हुए उन दर्शनो के इच्छित पदार्थो के कौन - से अंश सद्भूत होंगे कि जिससे सापेक्षरुप से स्याद्वाद हो सत्प्रवाद हो सुन्दर तरीके से कथन हो ? उत्तरपक्ष : यद्यपि सर्वदर्शन अपने- अपने मत से विरोध को धारण करते है । फिर भी दर्शनो के द्वारा कही जाती वस्तु के जो अंश है वे परस्पर सापेक्ष होने पर भी यथार्थता को प्राप्त करते है । (अन्यथा नहीं) (प्रत्येक स्थान पे भावार्थ नहीं देंगे, स्वयं विचार कर लेना ।) ( २ ) कोई बार उत्तरपक्षकार - टीकाकार स्वतत्त्व के निरुपण के समय अन्य की ओर से अपने पक्ष में कोई अनुपपत्ति (असंगति) बताने की संभावना रहती हो तब "यद्यपि " कहकर, उस उत्तरपक्षकार अन्य की ओर से दी गई अनुपपत्ति (असंगति) का परिहार करते है । यद्यपि च प्रत्यक्षस्य क्षणो ग्राह्यः स च निवृत्तत्वान्न प्राप्यते तथापि तत्संतानोऽध्यवसेयः प्रवृत्तो प्राप्यत इति । (श्लो. ८ टीका) I ( ३ ) तर्हि श्वेताम्बरदिगम्बराणां कथं मिथो मतभेद इति चेत् उच्यते । मूलतोऽमीषां मिथो न भेदः किंतु पाश्चात्य एवेति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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