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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-८, व्याख्या की शैली का परिचय
(यहां "तर्हि से चेत्" के बीच पूर्वपक्षग्रंथ = शंकाग्रंथ और "उच्यते" से उत्तरपक्षग्रंथ समाधान ग्रंथ है।)
भावार्थ : पूर्वपक्ष : (आपने पहले कहा कि चौबीस जिनेश्वरो को परस्पर कोई मतभेद नहीं है) तो फिर श्वेतांबरो और दिगंबरो के बीच परस्पर मतभेद किस तरह से हुआ?
उत्तरपक्ष : मूल से इन सभी को परस्पर मतभेद नहीं था, परंतु बाद में मतभेद हुए है। (४) कोई बार पूर्वपक्षकार = शंकाकार अपनी शंका "ननु" करके रख देते है । तब उत्तरपक्षकार = समाधानकार "न" आपकी बात योग्य नहीं है। ऐसा बताकर उसका कारण देते है और कारणसूचक वाक्य के अंत में पंचमी विभक्ति होती है। उस समय नीचे अनुसार की शैली दिखाई देती है।
ननु यस्य दिवः समागत्य देवाः पूजादिकं कृतवन्तः स एव वर्धमान सर्वज्ञो न शेषाः सुगतादय इति चेन्न वर्धमानस्य चिरातीतत्वेनेदानीं तद्भावग्राहकप्रमाणाभावात् ।
भावार्थ : पूर्वपक्ष : जिनकी देवलोक में आकर देव पूजादि करते है,वे वर्धमानस्वामी ही सर्वज्ञ है। शेष बौद्धादि नहीं।
उत्तरपक्ष : ऐसा नहीं कहना । क्योंकि वर्धमानस्वामी चिरकाल से अतीत होने के कारण (लम्बे काल पहले हुए होने के कारण) उनके सद्भाव के ग्राहक प्रमाण में अभाव है। (५) आह परः येऽत्र देशान्तरगतदेवदत्तादयो दर्शिताः तेऽत्रास्माकमप्रत्यक्षा अपि देशान्तरगतलोकानां केषांचित्प्रत्यक्षा एव सन्ति तेन तेषां सत्त्वं प्रतीयते, धर्मास्तिकायादयस्तु कैश्चिदपि कदापि नोपलभ्यते तत्कथं तेषां सत्ता निश्चीयत इति ? अत्रोच्यते, यथा देवदत्तादयः केषांचित्प्रत्यक्षत्वात्सन्तो निश्चीयन्ते, तथा धर्मास्तिकायादयोऽपि केवलिनां प्रत्यक्षत्वात्कि न सन्तः प्रतीयन्ताम् ? (श्लो. ४८-४९ टीका)
यहां “आह परः" से पूर्वपक्ष है तथा "अत्रोच्यते" से उत्तरपक्ष का प्रारंभ होता है। उत्तरपक्षकार अपने तत्त्व का निरुपण करते हो तब पूर्वपक्षकार उत्तरपक्षकार की उस बात को तत्त्व को नहि स्वीकार करने के लिए असंगतियां बताते होते है और वह बात उत्तरपक्षकार स्वयं “आह परः" कहकर पूर्वपक्ष के रुप में रखते होते है। उत्तरपक्षकार "अत्रोच्यते" कहकर पूर्वपक्षने दी हुई असंगतियो को दूर करके समाधान देता है । (जिस स्थान पे शंकाग्रंथ की सूचक चेत् इत्यादि शब्द दिखाई नहीं देते वहां “इति" शब्द देखने को मिलते है। (६) अथ कथं कठिनमादर्श प्रतिभिद्य मुखतो निर्गताः पुद्गलाः प्रतिबिम्बमाजिहत इति चेत् ? उच्यते, तत्प्रतिभेद: कठिनशिलातलपरिस्रुतजलेनायऽस्पिण्डेऽग्निपुद्गलप्रवेशेन शरीरात्प्रस्वेदवारिलेश-निर्गमनेन च व्याख्येयः । (श्लो. ४८-४९ टीका...)
यहाँ अथ.... से चेत् तक पूर्वपक्षग्रंथ = शंकाग्रंथ है। "उच्यते " से "व्याख्यायः" तक उत्तरपक्षग्रंथ - समाधानग्रंथ है। (७) समाधानकार = उत्तरपक्षकार पूर्वपक्ष के सामने अपना समाधान दे उसमें विशेष खुलासे या विकल्पो से वस्तु को स्पष्ट करनी हो तब वह करने से पहले "तथाहि" शब्द रखकर प्रारंभ करते है। (तथाहि - वह इस अनुसार से है।)
ननु पुण्यपापे नभोम्भोजनिभे एव मन्तव्ये, न पुनः सद्भूते कुतः पुनस्तयोः फलभोगस्थाने स्वर्गनारकाविति
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