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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का हैं । जैनशासन के कर्म साहित्य में कर्म, कर्म के चार प्रकार, कर्म के मुख्य आठ भेद और एकसो अट्ठावन प्रभेद, आठ करण आदि कर्म विषयक अनेक पदार्थो का प्रतिपादन हुआ हैं । जिज्ञासु वह कर्म विषयक साहित्य में से जान ले। कर्म के ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार और प्रकृति आदि चार प्रकार का वर्णन 'जैनदर्शन का कर्मवाद' नामक परिशिष्ट में देखें । (८) निर्जरा : आत्मा के उपर बंधे हुए कर्मो का दूर हो जाना उसे निर्जरा कही जाती है । निर्जरा के दो प्रकार है। सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा । कर्मो का नाश करने की इच्छापूर्वक जो कष्ट सहन किये जाये और उससे जो कर्मो का नाश हो, उसे सकाम निर्जरा कही जाती है । कर्मनाश की ईच्छा के बिना आ गये शारीरिक-मानसिक कष्ट - दुःख को सहन किया जाये और उससे कर्मो का जो नाश हो उसे अकाम निर्जरा कहा जाता हैं । निर्जरा के १२ प्रकार हैं। तप के जो १२ प्रकार हैं; वह निर्जरार्थ ही हैं। इसलिए निर्जरा के भी १२ प्रकार बताये है। (९) मोक्ष : देहादि के आत्यन्तिक वियोग को मोक्ष कहा जाता है । कर्म और आत्मा के संयोग से देहादि संसार उत्पन्न हुआ हैं । कर्मो का संपूर्ण नाश होने से आत्मा के साथ जुड़े हुए देहादि का भी आत्यंतिक नाश होता हैं, उसे मोक्ष कहा जाता है । मोक्ष का स्वरूप पहले बताया ही है । इसलिए यहाँ पुनः लिखने की आवश्यकता नहीं लगती है । इस तरह से जैनदर्शन को मान्य नवतत्त्वो का स्वरूप देखा । जिनागमो तथा उसके आधार पर रचे गये प्रकरण ग्रंथों में जीवादि नव तत्त्वो का विस्तार से स्वरूप वर्णन किया गया हैं । पू.वाचक प्रवर श्री उमास्वातिजी महाराजा द्वारा विरचित "तत्त्वार्थाधिगम सूत्र" ग्रंथ जैन दर्शन का आकर ग्रंथ हैं । उसमें नव तत्त्वो का विस्तार से स्वरूप बताया है । प्रस्तुत ग्रंथ के भाग-२ में परिशिष्ट में भी नवतत्त्व विषयक विशेषार्थ संगृहीत किया है। यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, तत्त्वार्थ सूत्रकार ने पुण्य और पाप तत्त्व का आश्रव में अन्तर्भाव करके सात तत्त्व बताये हैं।१९५) यद्यपि संक्षेप करके जगत के तमाम पदार्थो का अन्तर्भाव जीव और अजीव, ऐसे दो तत्त्वो में भी हो जाता है। आश्रव, बंध, पुण्य और पाप ये चार कर्मपुद्गल के परिणाम विशेष होने से उनका अन्तर्भाव अजीव में होता हैं और संवर, निर्जरा और आत्मा - ये तीन आत्मा के परिणाम होने से उनका अन्तर्भाव “जीव" तत्त्व में होता है । प्रस्तुत ग्रंथ में सभी दर्शनो की मोक्षविषयक मान्यतायों की परीक्षा की गई है । श्लोक-५२ की टीका में संकलित हुए वह परीक्षा ग्रंथ मध्यस्थ सत्यार्थी जीव के लिए अवश्य अवलोकनीय है । उसके अवलोकन से अवश्य नूतन नवनीत की प्राप्ति होगी। दिगंबरो के द्वारा निषिद्ध 'स्त्री की मुक्ति' का अनेक युक्तियों द्वारा व्यवस्थापन किया गया हैं । दिगंबराने स्त्री मुक्ति के विरोध में जितने विकल्प खडे किये हैं, उसको टीकाकारश्री ने प्रबल युक्तियों द्वारा खंडित किये है । ___ इन जीवादि नवतत्त्वो के उपर स्थिर आशयवाला अचल श्रद्धा रखता है - विश्वास करता है, उसमें सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का सद्भाव होने से चारित्र की योग्यता होती हैं । तथा जो भव्यात्मा को तथाभव्यत्व के परिपाक से रत्नत्रयी प्राप्त होती है, वह भव्यात्मा सम्यग्ज्ञान और सम्यक् क्रिया के योग से मोक्ष प्राप्त करता है ।(११६) योग्यता की दृष्टि से जीव दो प्रकार के है । भव्य और अभव्य । जिन में मोक्षगमन की योग्यता हो उसे भव्य कहा जाता है और जिन में मोक्षगमन की योग्यता नहीं है, उसे अभव्य कहा जाता हैं । जीवो का यह भव्यत्व और 115. जीवाजीवाश्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम् ।।१-४।। स आश्रवः । शुभः पुण्यस्य । अशुभ: पापस्य ।।६।२-३-४ ।। (तत्त्वा.सू.) 116. षड्.समु.-५३-५४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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