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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
अभव्यत्व स्वभाव अनादि पारिणामिक भाव है । वह नया उत्पन्न नहीं हुआ हैं परन्तु अनादि काल से है । भव्य जीव ही रत्नत्रयी की साधना द्वारा सर्वकर्म का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करता हैं । प्रमाणमीमांसा :
जैनदर्शन के अनुसार से प्रमाण का सामान्य लक्षण है - "स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्।"(११७) स्व-अपने (ज्ञान के) स्वरूप का और स्व से भिन्न परपदार्थ का यथावस्थित निश्चयात्मक ज्ञान जिससे होता है. उस स्व-पर व्यवसायि ज्ञान को प्रमाण कहा जाता है । ___ श्लोक-५४ की टीका में प्रमाण के सामान्य लक्षण का निरूपण करके अन्य दर्शनो के प्रमाण सामान्य के लक्षण की परीक्षा की गई है । वह परीक्षा ग्रंथ "प्रमाण" के स्वरूप के विषय में विशेष प्रकाश डालता होने से जिज्ञासु वर्ग के लिए अवश्य आकर्षण का विषय बने ऐसा है । विशेष में, प्रमाणनयतत्त्वालोक ग्रंथ और उसकी टीका में और प्रमाणमीमांसा एवं स्याद्वादमंञ्जरी ग्रंथ में विस्तार से प्रमाण सामान्य के लक्षण का विचार किया गया है ।
जैन मतानसार प्रमाण के दो प्रकार है। प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रमाण का विषय अनंतधर्मात्मक वस्त है। अन्य दर्शनो द्वारा परिकल्पित आगमादि अन्य प्रमाणो का इन दोनों में अन्तर्भाव हो जाता हैं । उसका विवेचन श्लोक-५४ की टीका में किया है ।
प्रत्यक्ष प्रमाण : स्व (ज्ञान) और पर (पदार्थ) का निश्चय करनेवाले स्पष्ट (परनिरपेक्ष) ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा ता है । उसके दो प्रकार है । (१) सांव्यवहारिक और (२) पारमार्थिक (११८) बाह्य चक्ष आदि इन्द्रियाँ, प्रकाश आदि सामग्री से उत्पन्न होनेवाला हम जैसो का ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता हैं । वह बाह्य इन्द्रियाँ आदि को सापेक्ष होने से अपारमार्थिक हैं । केवल आत्मा से उत्पन्न होता अवधिज्ञानादि पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता हैं । इन दोनों प्रकार के प्रत्यक्ष का (प्रभेद सहित) स्वरूप श्लोक-५५ की टीका में विस्तार से बताया हैं ।
परोक्ष प्रमाण : अविशद और अविसंवादि ज्ञान को परोक्ष प्रमाण कहा जाता है ।११९) उसके पांच प्रकार है । (१) स्मृति, (२) प्रत्यभिज्ञा, (३) तर्क, (४) अनुमान और (५) आगम । ___ (पहले देखे - अनुभव किये हुए पदार्थ का) सस्कार के प्रबोध से उत्पन्न होनेवाला, अनुभूत अर्थ के विषयवाला “वह था" इत्यादि रूप से “वह" शब्द में जिसका वेदन होता है उसे स्मरण (स्मृति) कहा जाता हैं । १२०) अनुभव और स्मरण से उत्पन्न हुए संकलनात्मक ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहा जाता हैं ।(१२९) उपलंभ या अनुपलंभ से उत्पन्न होनेवाले त्रिकाल विषयक सर्व साध्य-साधन के संबंध को विषय करनेवाले ज्ञान को तर्क कहा जाता हैं ।(१२२) साधन से उत्पन्न होते साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा जाता हैं । वह दो प्रकार का हैं - स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। १२३) हेतु के ग्रहण और संबंध (अविनाभाव) के स्मरण से होनेवाले साध्य के ज्ञान को स्वार्थानुमान कहा जाता हैं ।(१२४) निश्चित अन्यथा 117. प्रमाण न. तत्त्वा. १/२, जैनतर्क भाषा, प्रमाण मीमांसा । 118. स्वपरव्यवसायि ज्ञानं स्पष्टं प्रत्यक्षम् । तद्विप्रकारं सांव्यवहारिक
पारमार्थिकं च । (षड्.समु. ५५ टीका) । 119. अविशदमविसंवादिज्ञानं परोक्षम् । (षड्.समु. ५५ टीका) अस्पष्टं परोक्षम् ।। प्रमा.न.तत्त्वा-३-१।। वैशद्याभावविशिष्टं यत् प्रमाणं तत् परोक्षप्रमाणम् ।। (प्र.न.त. ३/१ टीका) । 120. तत्र संस्कारप्रबोधसंभूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं संवेदनं स्मरणम् । तत् तीर्थकरबिम्बमिति यथा ।। प्र.न.तत्त्वा. ३।३-४ ।। 121. अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूलतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् यथा तज्जातीय एवायं गोपिण्डः, गोसदृशो गवयः, स एवायं जिनदत्त इत्यादि ।। प्र.न.तत्त्वा. ३/५-६।। 122. उपलम्भानुपलम्भसंभवं त्रिकालकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनम् 'इदमस्मिन् सत्येव भवति' इत्याद्याकारं संवेदनम्, ऊहाऽपरनामा तर्क: ।। प्र.न.त. ३-७।। यथा यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति तस्मिनसत्यसौ न भवत्येव ।।३-८।। (प्र.न.तत्त्वा.) । 123. अनुमानं द्विप्रकारम्, स्वार्थ परार्थं च । 124. हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम् ।।३-९/१०।।
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