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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
स्पर्श, गंध, रस, वर्णवाले पुद्गल होते हैं । ११२) (जिसका पूरण और गलन का स्वभाव है, उसे पुद्गल कहा जाता हैं।) स्पर्श के आठ प्रकार हैं : मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष । रसके पांच प्रकार हैं : तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर ! गंध दो प्रकार ही है : सुरभि और असुरभि । वर्ण पांच हैं : काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत ।
शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अंधकार, काया, आतप, उद्योत, ये सर्व पुद्गल के ही पर्याय (परिणाम) हैं ।११३) पुद्गल दो प्रकार हैं । (१) परमाणु स्वरूप और (२) स्कंध स्वरूप का (परमाणु कारण ही हैं। अर्थात् वह कार्यरूप नहीं।) वह स्कन्धो को उत्पन्न करने का कारण ही हैं । वह किसी से उत्पन्न नहीं होता हैं । उससे छोटा कोई द्रव्य न होने से वह अन्त्य हैं। वह सूक्ष्म और नित्य है । उसमें एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श होते है । वह स्कंधरुप लिंगो से अनुमेय हैं, प्रत्यक्ष नहीं हैं।११४) द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से परमाणु नित्य और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से नीलादि आकारो के द्वारा वह अनित्य हैं । व्यणुकादि से यावत् अनंत परमाणुवाले द्रव्य स्कन्ध कहे जाते हैं । स्कन्ध परमाणुओं के संघात स्वरूप हैं । प्रस्तुत ग्रंथ की श्लोक ४८-४९ की टीका में छः द्रव्यो की विस्तार से सिद्धि की गई हैं । तथा अंधकार - शब्दादि की भी पुद्गल द्रव्य के रुप में युक्तिपूर्वक सिद्धि की हैं।
(३-८) पुण्य-पाप : प्रशस्त कर्म के पुद्गलो और उसके कारणभूत प्रशस्त क्रिया को पुण्य कहा जाता हैं । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, स्वर्ग इत्यादि प्रशस्त पदों तक पहुँचानेवाला कर्म पुद्गल पुण्य कहा जाता है । पुण्य से विपरीत अप्रशस्त पुद्गल कर्म को और उसके कारणभूत अप्रशस्त क्रिया को पाप कहा जाता हैं । जो लोग पुण्य-पाप कर्म को नहीं मानते हैं उनके मत का खंडन करके पुण्य-पाप की सिद्धि श्लोक-५० की टीका में की गई हैं । संसार में जो विषमतायें दिखाई देती है वह कर्म के कारण ही हैं ।
(५) आश्रव : जिससे आत्मा में कर्म आते हैं, उसे आश्रव कहा जाता है । मिथ्यात्वादि जो कर्मबंध के कारण हैं, उसको ही जैनशासन में आश्रव कहा जाता हैं । विपरीत दर्शन कराये उसे मिथ्यात्व कहा जाता है । सुदेव नहीं है उसमें सुदेव की, सुगुरु नहीं है उसमें सुगुरु की और सुधर्म नहीं है उसमें सुधर्म की बुद्धि कराये उसे मिथ्यात्व कहा जाता हैं। हिंसादि पापो से विराम न पाने दे उसे अविरति कही जाती हैं । जिससे संसार का लाभ हो उसे कषाय कहा जाता हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चार कषाय है । आत्मभिन्न पदार्थो में प्रकर्ष से व्यथित कर दे उसे प्रमाद कहा जाता हैं । मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा ये पाँच प्रकार के प्रमाद है । मन-वचन-काया के व्यापार को योग कहा जाता है । मिथ्यात्वादि पांच कर्मबंध के कारण माने गये है । आश्रव के ४२ प्रकार हैं । वे 'जैनदर्शन का विशेषार्थ' नाम के परिशिष्ट में से जान लेना ।
(६) संवर : आश्रव के निरोध को संवर कहा जाता हैं । संवर के दो प्रकार है । (१) देशसंवर और (२) सर्वसंवर। आत्मा में कर्मो का आगमन जो मिथ्यात्वादि मलिन परिणामो से होता है, उस परिणामो का निरोध करना उसे संवर कहा जाता है । बादर - सूक्ष्म मन - वचन - काया के व्यापार स्वरूप योग का निरोध काल में सर्वसंवर होता हैं । संवर के ५७ प्रकार है । वे भी 'जैनदर्शन का विशेषार्थ' नाम के परिशिष्ट से जान लेना ।
(७) बंध : दूध और पानी की तरह जीव और कर्म का एकरूप हो जाना-दोनों का परस्पर अनुप्रवेश स्वरूप संबंध होना उसे बंध कहा जाता है । वह बंध प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का हैं । तथा बंध प्रकृति, स्थिति, रस 112. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गलाः (तत्वार्थाधिगम. २/२३) । 113. शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमच्छायातपोद्योतवन्तश्च
(तत्त्वा. ५/२४) । 114. कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च । (तत्त्वार्थभाष्य-५/२५) ।
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