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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
भी हैं । इसके द्वारा धर्म-धर्मी को एकांत से भिन्न माननेवाले वैशेषिक मत का और दोनों को एकांत से अभिन्न माननेवाले बौद्ध मत का खंडन होता हैं ।
आत्मा विवृत्तिमान् हैं । देव, मनुष्य इत्यादि विविध पर्यायो का अनुसरण करना उसे विवृत्ति कहा जाता है । ऐसा विवृत्तिमान् आत्मा हैं । इसके द्वारा भवांतरगामी आत्मा का निषेध करते चार्वाक मत का और जो आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते है, उनके मत का खंडन होता है । आत्मा शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कर्मों के फलो का भोक्ता भी हैं । इसके द्वारा आत्मा को अकर्ता और उपचार से भोक्ता माननेवाले सांख्यदर्शन का खंडन होता हैं । आत्मा चैतन्य स्वरूप वाला है । संसारी अवस्था में वह पूर्णत: व्यक्त अवस्था में नहीं होता है । कर्म के आवरणो के कारण जीव का चैतन्य स्वरूप
सभी आवरण नष्ट होते है तब आत्मा का शद्ध चैतन्य स्वरूप पूर्णतः प्रकट होता हैं और आत्मा की मुक्ति होती है । मोक्षावस्था में भी चैतन्य होता ही है । चैतन्य उ बोध (ज्ञान) । इससे आत्मा को ज्ञानशून्य माननेवाले मत का निराकरण होता हैं । __ आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का विरोध करनेवाले चार्वाक की युक्तियों का खंडन करके आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व की सिद्धि प्रस्तुत ग्रंथ की श्लोक ४८-४९ की टीका में की गई है । टीका में प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि तमाम प्रमाणो से आत्मा की सिद्धि की गई हैं । आत्मा की कूटस्थ नित्यता भी संगत नहीं होती है । उसकी विचारणा भी टीका में की गई है । आत्मा कर्मों का कर्ता और उसके फलो का भोक्ता है, इस हकीकत को भी टीका में सुंदर प्रकार से स्पष्ट की गई है। यदि आत्मा को कर्ता-भोक्ता माना न जाये तो “कृतनाश" और "अकृताभ्यागम" दो दोष आते है ।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति भी सचेतन हैं । क्योंकि पूर्वोक्त लक्षण उनमें भी दिखाई देते ही है । अनेक युक्तियों और व्यवहार के उदाहरणो द्वारा विस्तार से पृथ्वी आदि में सचेतनता की सिद्धि टीका में की गई हैं । वैसे तो चींटी, भंवरा आदि दोइन्द्रियादि जीवो में सचेतनता मानने में किसी को विवाद नहीं है । फिर भी कुछ लोगो के विरोध का परिहार करने के लिए उन जीवो की सचेतनता की सिद्धि भी युक्तिपुरस्सर टीका में की गई हैं।
(२) अजीव : जिसमें चैतन्य न हो उसे अजीव कहा जाता है। अजीव के पांच प्रकार है । (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल, (५) पुद्गलास्तिकाय ।
जीव और अजीव इन दो ही तत्त्वो में जगत के सभी पदार्थो का अंतर्भाव हो जाता है । गति में स्वयं परिणत पुद्गल और जीव को गति करने में जो सहायक बनता हैं, उसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है । (यहाँ अस्ति उ प्रदेश और काय उ समूह अर्थात् जिसको प्रदेशो का समूह हो उसे अस्तिकाय कहा जाता हैं ।) धर्मास्तिकाय असंख्यप्रदेशवाला हैं । (प्रदेश उ जिसका विभाग न हो सके ऐसे निर्विभाज्य खंड।) वह धर्मास्तिकाय लोकाकाश में व्याप्त, नित्य, अवस्थित और अरुपी (अमूर्त) हैं ।
अधर्मास्तिकाय स्थिति (स्थिर रहने में - खडे रहने में) परिणत पुद्गल और जीव को सहायक बनता हैं। वह भी लोकाकाशव्यापी, नित्य, अवस्थित और अरुपी हैं । आकाश लोकालोकव्यापी, अनंत प्रदेशी, नित्य, अवस्थित, अरुपी, अस्तिकाय तथा जीव और पुद्गलादि द्रव्यो को अवगाहना देने में उपकारक हैं । कुछ आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य मानते नहीं हैं । परन्तु धर्मास्तिकाय इत्यादि द्रव्यो का पर्याय स्वरूप मानते हैं । कुछ आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं, उनके मतानुसार षड्द्रव्यात्मक लोक हैं । जीव और पांच अजीव, इन छ: द्रव्यो में से एकमेव आकाश ही जहाँ है, उसे अलोक कहा जाता है ।
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