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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका श्री जिनेश्वर (इष्टदेव) सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, सर्वकर्म से रहित, सिद्धावस्था को प्राप्त, पुनः अवतार न लेनेवाले, बद्ध में से मुक्त बने हुए, जगत के कर्ता नहीं परन्तु प्रकाशक, सुरासुरेन्द्र से पूज्य हैं। जिनेश्वर एक नहीं है परन्तु अनेक हैं। आज तक अनंता तीर्थंकर हुए है और भविष्य में अनंता तीर्थंकर होनेवाले है । जगत कभी भी तीर्थंकर रहित होगा ही नहीं। हाँ, ऐसा हो सकता है कि किसी क्षेत्र में किसी काल में तीर्थंकर न हो, परन्तु इस जगत में प्रत्येक काल में कोई स्थान पर तो तीर्थंकर परमात्मा अवश्य तीर्थ प्रवर्तन का अपना कार्य करते ही होते है । जैसे कि, हाल में महाविदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर स्वामी आदि २० तीर्थंकर पृथ्वीतल को पावन कर रहे ___ यहाँ एक खुलासा कर ले कि, जैनदर्शन को कोई देव के प्रति द्वेष नहीं है या कोई देव के प्रति पक्षपात नहीं है । जिन में 'देवत्व' संगत होता हो उसे यह देव के रुप में मानता हैं । “देवत्व" का सद्भाव सर्वज्ञता, वीतरागता आदि गुणो से जैनदर्शन मानता है । इसलिए सर्वज्ञता-वीतरागता आदि गुण जिन में हो, उसे वह देव के रूप में स्वीकार करता है। प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिता पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजा भी मध्यस्थता के साथ उद्घोषणा करते हैं कि, पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । कलिकाल सर्वज्ञ पू.आ.भ. श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराज भी स्वरचित महादेव अष्टक में स्तवना करते हुए फरमाते हैं कि, हम को महावीर या महादेव ऐसे नामो के प्रति कोई आग्रह नहीं है । जो वीतराग और सर्वज्ञ है, वह महावीर हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो या कोई भी हो, वह हमको भगवान के रुप में मान्य है और हमारे लिए पूज्य - आराध्य है । अन्य जैनाचार्य द्वारा विरचित १०५) महादेव - अष्टक में भी सर्वज्ञता-वीतरागतादि विशेषणो से युक्त महादेव की स्तवना में यही सद्भावनायें व्यक्त हुई हैं। तत्त्वमीमांसा : जैनदर्शन नव तत्त्वो को मानता है । जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ।(१९०) (१) जीव : चैतन्य जीव का लक्षण हैं । नवतत्त्व प्रकरण में जीव के लक्षण छ: बताये हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, तप और उपयोग ।१११) (ज्ञानादि सभी शब्दो का स्वरूप प्रस्तुत ग्रंथ की टीका में भिन्न-भिन्न स्थान पर स्पष्ट किया हो गया है ।) जीव ज्ञानादि धर्मो से भिन्नाभिन्न स्वरूप है अर्थात् आत्मा ज्ञानादि धर्मो से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है । यदि जीव ज्ञानादि धर्मो से सर्वथा भिन्न हो तो “मैं जानता हूँ", "मैं देखता हुँ" "मैं ज्ञाता हुँ” “मैं दृष्टा हुँ", "मैं सुखी हुँ" "मैं दुःखी हुँ" इत्यादि ज्ञानादि धर्म और जीव के बीच के अभेद का प्रतिभास नहीं होना चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं है। दोनों के बीच के अभेद का प्रतिभास होता ही है । इसलिए ही “मैं जानता हुँ" ऐसे प्रकार का व्यपदेश जीव करता हैं और उसको सर्वजन यथार्थ भी मानते हैं । इसलिए दोनों कथंचित् अभिन्न हैं । यदि आत्मा ज्ञानादि धर्मो से सर्वथा अभिन्न हो तो “यह धर्मी और ये धर्म" ऐसे प्रकार की भेदबुद्धि नहीं हो सकेगी । परन्तु भेदबुद्धि तो होती ही हैं । इसलिए दोनों कथंचित् भिन्न 109. यस्य संक्लेशजननो रागो नास्त्येव सर्वदा । न च द्वेषोऽपि सत्त्वेषु शमेन्धनदवानल: ।।१।। न च मोहोऽपि सज्ज्ञानच्छादनोऽशुद्धवृत्तकृत्। त्रिलोकख्यातमहिमा महादेवः स उच्यते ।।२।। यो वीतरागः सर्वज्ञो य: शाश्वतसुखेश्वरः । क्लिष्टकर्मकलातीत: सर्वथा निष्कलस्तथा । यः पूज्य: सर्वदेवानां यो ध्येय: सर्वयोगिनाम् । यः स्रष्टा सर्वनीतिनां महादेवः स उच्यते ।।४।। 110. जीवाजीवौ तथा पुण्यं पापमाश्रवसंवरौ । बन्धो विनिर्जरामोक्षौ नव तत्त्वानि तन्मते ।।४७ ।। (षड्. समु.) । 111. नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य एअं जीवस्स लक्खणं ।।५।। (नवतत्त्व प्रकरण) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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