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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
श्री जिनेश्वर के अठारह दोष नाश हुए होते है ।(१०६) जैनमत अनुसार श्री जिनेश्वर “अनादिशुद्ध" नहीं होते हैं। जीव या तो मुक्त हो या तो बद्ध हो । जो पहले बद्ध है वही मुक्त बनेगा । "मुक्त" के रूप में व्यवहार भी तब ही होगा कि जो पहले बद्ध हो और बाद में उपाय विशेष के सेवन से मुक्त बना हो, जो पहले बद्ध नहीं है, उसके लिए कभी भी मुक्त का व्यपदेश नहीं किया जा सकता । ईश्वर को “अनादि शुद्ध" माननेवाले पक्ष को उनके ईश्वर मुक्त है या बद्ध हैं, वह बताना चाहिए । यदि ईश्वर बद्ध है तो वह शुद्ध ही नहीं है, तो अनादिशुद्ध मानने का पक्ष ही ऊड जाता है और यदि मुक्त है तो पहले बद्ध होने ही चाहिए । तथा पहले बद्ध हो तो “अनादिशुद्ध" भी नही मान सकेंगें । इसलिए मुक्त और बद्ध से अतिरिक्त "अनादिशुद्ध" की कक्षा संभवित ही नहीं हैं । सांख्यसूत्रकार भी “अनादिशुद्ध" ईश्वर का निषेध ही करते है । १०७)
इसलिए जैनमतानुसार श्री जिनेश्वर (अन्य जीवो की तरह) पहले कर्मो से बद्ध ही होते है । चारित्र की साधना द्वारा कर्मो का नाश करके मुक्त बनते है । पहले बताये अनुसार अन्य जीवो से उनका तथाभव्यत्व भिन्न प्रकार का होता हैं। इसलिए अन्य जीव सामान्य केवली बनकर सिद्ध बनते है और श्री जिनेश्वर के आत्मा अरिहंत-तीर्थंकर बनकर सिद्ध बनते हैं।
जैनमतानुसार श्री जिनेश्वर जगत के कर्ता नहीं है । जगत के (जगतवर्ती पदार्थो के) यथावस्थित प्रकाशक है । जो लोग ईश्वर को जगत्कर्ता मानते है और उसकी सिद्धि के लिए जो अनुमान-युक्ति देते है, उसका खंडन प्रस्तुत ग्रंथ के श्लोक-४५-४६ की टीका में विस्तार से किया गया है । तदुपरांत मीमांसको ने सर्वज्ञता आदि का विरोध करके सर्वज्ञादि विशेषणो से युक्त श्री जिनेश्वरो का जो विरोध बताया है, उस विरोध का भी परिहार टीका में किया गया है ।
मूलगुणो का घात करनेवाले चार घातीकों का नाश होने से आत्मा केवलज्ञानी - केवलदर्शी बनता है । जब तक चार अघाती (भवोपग्राही) कर्मो का नाश न हो, तब तक शरीर विद्यमान होता है । शरीर होने से उसके धारण के लिए कवलाहार (भोजन) भी होता ही है । फिर भी जैनदर्शन के मूल मार्ग से अलग हुए दिगंबर संप्रदाय केवलज्ञानी को कवलाहार का निषेध बताते है और उनकी मान्यता की सिद्धि के लिए अनुमान-युक्तियाँ देते है । उन सभी अनुमानोयुक्तियों का खंडन प्रस्तुत ग्रंथ की टीका में किया गया है । दिगंबरो की कवलाहार निषेध की मान्यताओं और अन्य मान्यताओं (स्त्री मुक्ति निषेधक - वस्त्र सहित की मुक्ति की निषेधक मान्यताओं) के खंडन के लिए न्यायाचार्य - न्यायविशारद महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने 'अध्यात्ममत परीक्षा' और 'आध्यात्मिक मत परीक्षा' ऐसे दो स्वतंत्र ग्रंथो की रचना की है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि, श्री महावीर प्रभु के तीर्थ में प्रारंभ में कोई मतभेद नहीं थे । सर्वप्रथम दिगंबर मत ने मूलमार्ग से अलग होकर अपनी अलग मान्यतायें प्रचारित की थी । अपनी मान्यता के समर्थन में ग्रंथ भी रचे थे । उनकी सर्व मान्यताओं का खंडन श्वेतांबर संप्रदाय के ग्रंथो में किया गया है । पहले श्वेतांबर और दिगंबर ऐसे कोई संप्रदाय नहीं थे। यह बात प्रस्तुत ग्रंथ के श्लोक-१ की टीका में भी बताई गई है ।(१०८) उसके बाद भी बहोत संप्रदायो ने मूलमार्ग से अलग होकर अपनी अलग मान्यतायें प्रवर्तित की है । उनको श्री जिनागमो का कोई समर्थन नहीं हैं । सारांश में, जैनमतानुसार 106. (१) अज्ञान, (२) मिथ्यात्व, (३) निद्रा, (४) अविरति, (५) राग, (६) द्वेष, (७) हास्य, (८) रति, (९) अरति, (१०) शोक,
(११) भय, (१२) जुगुप्सा, (१३) काम, (१४) दानांतराय, (१५) लाभांतराय, (१६) भोगांतराय, (१७) उपभोगांतराय और (१८) वीयाँतराय : ये अठारह दोष श्री जिनेश्वर के नाश हुए है । 107. इश्वरासिद्धेः । मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः।। (सां.सू. १-१-९२/९३) । 108. तर्हि श्वेताम्बरदिगम्बराणां कथं मिथो मतभेद इति चेद् ? उच्यते मूलतोऽमीषां मिथो न भेदः किंतु पाश्चात्य एव । (षड्. समु. श्लोक-१ टीका) ।
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