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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
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श्री इन्द्रभूतिजी आदि ११ मुख्य शिष्य थे । ये पूर्वावस्था में चौदह विद्या के पारगामी ब्राह्मण थे । श्री महावीर स्वामी के केवलज्ञान के बाद रचे गये समवसरण में (प्रवचन सभा में) उनके मन में प्रवर्तित जीवादि विषयक संशयो का नाश होने से उन्हों ने अपने शिष्य परिवार सहित प्रभु के पास दीक्षा अंगीकार की थी। प्रभुने उनको गणधर के रूप में स्थापित किये थे। उन्हों ने तत्त्व विषयक तीन प्रश्न प्रभु को पूछे, प्रभुने उसके उत्तर में१०३) त्रिपदी का दान किया था । उसको ग्रहण करके प्रभु की कृपा से गणधर भगवंतोने द्वादशांगी की (बारह अंगो की) रचना की थी । वे १२ अंग जैनदर्शन के मूल आगमग्रंथ कहे जाते हैं । उसमें से हाल में ११ अंग विद्यमान है । १२वां अंग काल प्रभाव से विच्छेद हो गया है । १२वें अंग में १४ पूर्वो का अन्तर्भाव हुआ था । उसमें जगत के सभी पदार्थो के स्वरूप और रहस्य को स्पष्ट किया गया था । जैनदर्शन के देव, तत्त्व, प्रमाण, सिद्धांत, ग्रंथ और ग्रंथकार आदि के विषय में अब क्रमशः सोचेंगे । देवता :
राग-द्वेष से रहित, महामल्ल ऐसे मोह के नाशक, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, सुरेन्द्र-असुरेन्द्रो से पूज्य, यथावस्थित अर्थ प्रकाशक, सर्वकर्म का क्षय करके परम पद (मोक्ष) के प्रापक ऐसे श्री जिनेश्वर परमात्मा जैनमत के देवता हैं ।(१०४) __ जैनदर्शन के मतानुसार उनके इष्टदेवता जगत के कर्ता, भर्ता, या हन्ता नहीं है । श्री जिनेश्वर परमात्मा जगत जैसा हैं, वैसा प्रकाशित करते हैं । असत्य बोलने के तीन कारण हैं । राग, द्वेष और मोह, इन तीनों का नाश हुआ होने से श्री जिनेश्वर परमात्मा का वचन संपूर्णरुप से सत्य ही होता हैं । वे जगत के सर्व पदार्थों
हस्तामलकवत देखते हैं और जानते है । वे सर्वकर्म का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हए है । कर्मरूपी बीज जल गया होने से पुनः जन्म नहीं लेते है। जिनका कर्मरूपी बीज जल जाता है, उसका संसार में पुनः अवतरण किस तरह से हो सकता है ? इसलिए जैनदर्शन अवतारवाद का स्वीकार नहीं करता है । सर्वकर्मो का क्षय जिसको होता है वह कृतकृत्य बन जाता है । उनके सभी प्रयोजन पूर्ण हो गये होते है । इसलिए किसी भी प्रकार के प्रयोजनवश पुनः अवतार लेने का प्रश्न ही नहीं रहता हैं ।
तारक श्री जिनेश्वर परमात्मा ३४ अतिशय रुपी बाह्य - अभ्यंतर लक्ष्मी से युक्त होते हैं । ज्ञानातिशय, वचनातिशय, पूजातिशय और अपायापगमातिशय : इन चार अतिशयो से सनाथ श्री जिनेश्वर परमात्मा जगत के उपर महान उपकार करते है । उनका ज्ञान जगत के तमाम रुपी और अरुपी त्रिकालवर्ती पदार्थो तक विस्तरित हैं । वे समस्त पदार्थो को हस्तामलकवत् देखते है और जानते हैं । वे जगत के पदार्थो को यथावस्थित प्रकाशित करते हैं । उनके वचनो का ऐसा
अतिशय होता हैं कि, मनुष्य, पशु और देव आदि सर्व अपनी-अपनी भाषा में समज सकते है । प्रभु मागधी भाषा में देशना (उपदेश) देते हैं । परन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवो को अपनी अपनी भाषा में प्रभु की वाणी समज में आ जाती हैं । इस जगत में श्रेष्ठ कोटि की पूजा श्री जिनेश्वर को प्राप्त होती है। जघन्य से एक क्रोड देवतायें उनकी सेवा में होते है। उन्हों ने राग-द्वेष-मोह का संपर्ण नाश किया है और अपने शरण में आये हए जीवो के रागादि का नाश करनेवाले हैं (जिणाणं जावयाणं) । वे अपना तीर्थ प्रवर्तन (धर्म प्रवर्तन) का कार्य पूर्ण होने पर शेष चार अघाती कर्म (भवोपग्राही) कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त करते हैं - सिद्धावस्था को पाते है । वे सिद्धावस्था को पाने के बाद पुन: कभी भी जन्म नहीं लेते हैं। पुनः अवतार धारण नहीं करते हैं ।१०५)
103. "उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" अर्थात् सर्वे पदार्थाः उत्पद्यन्ते, विनश्यन्ति, स्थिरीभवन्ति, य इति प्रभुवदनात् त्रिपदी श्रुत्वा
द्वादशाङ्गी रचितवान् ।। (कल्पसूत्र-टीका) 104. षड्. समु. ४५-४६ । 105. दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ।।१।। (तत्त्वार्थ धि. सू. भा.) ।
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