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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
की व्यवस्था के कारण यह मानना आवश्यक बनता हैं कि आत्मा अनेक हैं । (२) मरण की व्यवस्था भी आत्मा अनेक माने बिना नहीं होती हैं । (३) करणो की व्यवस्था द्वारा भी आत्मा का बहुत्व सिद्ध होता हैं । (४) अयुगपत् प्रवृत्ति भी आत्मा का बहुत्व सिद्ध करती हैं । (५) सुख, दुःख और मोहरूप गुणत्रय का विपर्यय दिखता होने से पुरुष बहुत्व सिद्ध होता है। इन पाँच कारण आत्मा एक नहीं है, परन्तु अनेक हैं, ऐसा सांख्यदर्शन मानता हैं । पाँचो कारणो की विचारणा सांख्य दर्शन निरुपणोत्तर दिये गये विशेषार्थ में सां. का. १८ के विवेचन में देखें । (९९)
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सांख्यदर्शन के ग्रंथ-ग्रंथकार :
सांख्यदर्शन के प्रवर्तक श्री कपिलऋषि के "सांख्यसूत्र" और " तत्त्वसमास" नाम के दो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं । सांख्यसूत्र छ: अध्याय और ५३७ सूत्रो में है । प्रथम अध्याय में विषय, द्वितीय में प्रधान के कार्य, तृतीय में वैराग्य, चतुर्थ में सांख्य तत्त्वो के - पदार्थ के बोध के लिए आख्यायिका, पंचम में परपक्ष का खंडन और छठ्ठे में सिद्धांतो का संक्षिप्त प्रतिपादन किया है । तत्त्व समास २२ सूत्रो का लघुग्रंथ है । उसके उपर श्री शिवानंदकृत " सांख्यतत्त्व विवेचन" और श्री भावगणेशकृत “सांख्यतत्त्वयाथार्थ्यदीपन" नामक टीकायें मिलती है । सांख्यसूत्र के उपर " अनिरुद्धवृत्ति" नाम की टीका हैं ।
श्री आसुरि श्री कपिल के साक्षात् शिष्य थे । उनके सिद्धान्तो का वर्णन प्राचीन ग्रंथो में उपलब्ध होता हैं। आचार्यश्री पंचशिखने अपने एक सूत्र में (१००) श्री कपिल को निर्माणकाय धारण करके श्री आसुरी को सांख्यतत्त्व का उपदेश देने की घटना का उल्लेख किया हैं ।( १०१ ) श्री आसुरी के शिष्य श्री पंचशिख ने 'षष्टितंत्र' नामका सांख्यदर्शन का एक ग्रंथ रचा था । सांख्यदर्शन की मान्यताओं का सुव्यवस्थित वर्णन उसमें था । श्री वाचस्पति मिश्र आदि ने अपने ग्रंथो में “ षष्टितंत्र" का उल्लेख किया हुआ दिखाई देता है । परन्तु हाल में वह ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं । श्री ईश्वर कृष्ण ने " सांख्यकारिका" की रचना की हैं । उसे सांख्यदर्शन का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता हैं । सांख्यकारिका के उपर “माठरवृत्ति" नामकी टीका श्रीमाठराचार्यने रची है, श्री वाचस्पति मिश्रने "सांख्यतत्त्वकौमुदी" नाम की टीका रची हैं, श्री नारायण तीर्थने " चन्द्रिका" नामकी लघुटीका की रचना की हैं। श्री विज्ञानभिक्षुने 'सांख्यसार' और 'योगसार' नाम के दो स्वतंत्र ग्रंथो की रचना की है । तथा सांख्यसूत्र के उपर 'सांख्य प्रवचन भाष्य', व्यासभाष्य के उपर योगवार्तिक और ब्रह्मसूत्र के उपर विज्ञानामृतभाष्य की रचना की है। उनके विचार मूल ग्रंथकारो से अलग पडते थे, वह उनके ग्रंथ देखने से ख्याल आयेगा । बहोत स्थान पर उन्हों ने श्री शंकराचार्य और श्री वाचस्पति मिश्र की मान्यताओं का भी खंडन किया हुआ दिखाई देता हैं ।
जैनदर्शन :
जैन दर्शन के प्रस्थापक श्री जिनेश्वर परमात्मा हैं । वर्तमान (१०२) अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर हुए हैं। उसमें श्री महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर है और प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव (आदिनाथ) भगवान हैं । श्री महावीर स्वामी के 99. जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तैश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। (सां. का. १८) । 100. आदिविद्वान् निर्माणचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच ( १/२५) (व्यासभाष्य में उद्धृत) । 101. भारतीयदर्शन पृ. २५२ । 102. एक कालचक्र में एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी होती हैं । जिसमें बल, बुद्धि आदि की क्रमशः वृद्धि हो उसे उत्सर्पिणीकाल कहा जाता है और जिसमें बलादि की क्रमशः हानि हो उसे अवसर्पिणीकाल कहा जाता है । एक कालचक्र २० कोडाकोडी सागरोपम स्थिति प्रमाण होता हैं । उत्सर्पिणी अवसर्पिणी दोनों में २४ - २४ तीर्थंकर भरत क्षेत्र में होते हैं । उसी तरह से ऐरावत क्षेत्र में भी २४- २४ तीर्थंकर होते हैं । महाविदेह क्षेत्र में कोई न कोई क्षेत्र में तीर्थंकर परमात्मा स्वकार्य को बहाते ही होते हैं । (काल के विषय में विशेष जानकारी जैनदर्शन का विशेषार्थ (परिशिष्ट) में दी गई है । आज तक अनंता कालचक्र व्यतित हो गये है । ) ।
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