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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका यहाँ उल्लेखनीय है कि, श्री वाचस्पति मिश्र और श्री विज्ञानभिक्षु के प्रमाण के सामान्य लक्षण के बीच बहोत मतभेद है। उन्हों ने स्वरचित ग्रंथ में उसकी विस्तार से चर्चा की है । उसी तरह से प्रत्यक्षादि प्रमाणो के लक्षणो के विषयो में भी मतभेद है । अनुमान प्रमाण के पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट ऐसे तीन प्रकार है । सांख्यदर्शन के महत्त्व के सिद्धांत : (१) परिणामवाद (सत्कार्यवाद) : सांख्याचार्यों का सिद्धांत है कि, सतः सज्जायते अर्थात् सत् में से सत् उत्पन्न होता है । अपनी उत्पत्ति से पहले कार्य अपने कारण में अस्तित्व रखता ही है। दूसरे शब्दों में कहे तो कारण स्वयं ही कार्य की अव्यक्त अवस्था हैं । अपनी उत्पत्ति से पहले कार्य अपने कारण में अव्यक्त भाव से या सूक्ष्मरुप से रहा हुआ होने से हम उसको इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष नहीं देख सकते है । तदुपरांत, सांख्याचार्यों के मतानुसार उत्पत्ति और विनाश का अर्थ केवल आविर्भाव और तिरोभाव ही है । उत्पत्ति से पहले भी कार्य कारण में अव्यक्त रूप में अस्तित्व रखता ही है; ऐसा मत सांख्यो का होने से उनके इस सिद्धांत को सत्कार्यवाद कहा जाता है । सत्कार्यवाद सिद्धांत की पुष्टि के लिए सांख्यकारिका में पाँच कारण दिये है । वह नीचे बताये अनुसार हैं - (२) असदकरणात : अपनी उत्पत्ति से पहले कार्य अपने कारण में शक्तिरूप से भी विद्यमान न हो तो उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता है ।९४) (२) उपादानग्रहणात् : यदि उत्पत्ति से पहले कार्य अपने कारण में विद्यमान न हो तो हम अमुक कार्य को उत्पन्न करने के लिए अमुक ही उपादानकारण का ग्रहण करते हैं, वह प्रतिनियत व्यवस्था नहीं रहेगी।९५) जैसे कि, शाली के फल का अर्थी शालि के बीज को ही ग्रहण करता हैं, अन्य बीज को नहीं । (३) सर्वसंभवाभावात् : यदि उत्पत्ति से पूर्व कार्य को असत् माना जाये तो उस काल में सत् कारण और असत् कार्य के बीच कोई भी प्रकार का संबंध नहीं बन सकेगा और यदि कार्य से असंबद्ध रहकर ही कार्य को उत्पन्न करते कारण की कल्पना की जाये तो कोई भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो जाने की आपत्ति आयेगी और जगत में ऐसा नहीं दिखाई देता है । इसलिए कारण में कार्य विद्यमान है ।९६) (४) शक्तस्य शक्यकरणात् : जिस कारण में जो कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति हो, वह कारण उसी कार्य को उत्पन्न करता हैं, दूसरे को नहीं ।९७) जैसे कि, मिट्टी रूप कारण में घटरूप कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति हैं, पटरूप कार्य की नहीं (और जगत में ऐसा ही दिखाई देता है ।) (५) कारणभावाञ्च कार्यस्य : कारण जिस जाति का होता है, उसी जाति का कार्य होता हैं, अन्य जाति का नहीं।९८) सत्कार्यवाद के समर्थक पाँचों कारणो की विचारणा प्रस्तुत ग्रंथ की श्लोक-४३ की टीका में की हैं और सांख्य दर्शननिरुपणोत्तर दीये हुए विशेषार्थ में भी विस्तार से चर्चा की हैं । __(२) पुरुष बहुत्व : सांख्य दर्शन ने पुरुष बहुत्व का स्वीकार किया हैं । उनके मतानुसार प्रत्येक शरीरो में आत्मा एक ही नहीं है, परन्तु प्रत्येक शरीर में आत्मा भिन्न-भिन्न है । इस विषय में दलील देते हुए, वे कहते हैं कि, (१) जन्म 94. असच्चेत् कारणव्यापारात् पूर्वं कार्यं नास्य सत्त्वं कर्तुं केनापि शक्यम् (सां.त.को. ९) । 95. यदि हि असद् भवेत् कार्यं तदा पुरुषाणां प्रतिनियतोपादानग्रहणं न स्यात् । तथाहि - शालिफलार्थिन: शालीबीजमेवोपाददते न कोद्रवबीजम् । (तत्त्व सं.पं.पृ. १९) । 96. स्यादेतत् - असम्बद्धमेव कारणैः कस्मात् कार्यं न जन्यते ? तथा चासदेवोत्पत्स्यतेऽत आह - सर्व सम्भवाभावात् इति । असम्बद्धस्य जन्यत्वे असम्बद्धत्वाविशेषेण सर्व कार्यजातं सर्वस्माद् भवेद्, न चेतदस्ति, तस्मान्नासम्बद्धमसम्बद्धेन जन्यतेऽपि तु सम्बद्धं सम्बद्धेन जन्यते इति । (सां.त.को. ९) । 97. शक्ताऽपि हेतवः कार्य कुवार्णः शक्यक्रियमेव कुर्वन्ति, नाशक्यम्। (तत्त्व सं.पं.पृ. ९) । 98. कार्यस्य कारणात्मकत्वात्, न हि कारणाद् भिन्नं कार्यम्, कारणं च सद् इति कथं तदभिन्नं कार्यमसद् भवेत् । (सां.त. को. ९) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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