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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
और लघुता है । रजस् क्रियाशील है और तमस् अवरोधक और गुरुतायुक्त है। प्रकृति प्रतिक्षण परिणामी है और वह एक है और नित्य हैं । (यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, कुछ सांख्य प्रत्येक पुरुष को एक स्वतंत्र प्रकृति मानते है । इसलिए पुरुष बहुव की तरह प्रकृति में भी अनेकता है ।)
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समग्र सृष्टि प्रकृति के परिणामरूप हैं । प्रकृति में से ही बुद्धि (महत्), अहंकार, पाँच तन्मात्रा, ग्यारह इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय तथा मन) और पाँच भूतो की सृष्टि उत्पन्न होती है । ये २३ तत्त्व प्रकृति में से आविर्भाव पाते हैं, बिलकुल नये उत्पन्न नहीं होते हैं अर्थात् उत्पत्ति से पहले भी उनका अव्यक्त अस्तित्व उनके कारण में होता ही है । इसलिए सांख्य सत्कार्यवादी है । उनके ये सिद्धांत के बारे में आगे ज्यादा बताया जायेगा ।
सत्त्वादि तीनो गुण द्रव्यरुप है । क्योंकि, वे परस्पर और पुरुष के साथ संयोग-विभाग पाते है । तदुपरांत, उनमें लघुत्व, चलत्व, गुरुत्व इत्यादि धर्म है, वह हकीकत भी उनको द्रव्य के रुप में सिद्ध करती है ।(९१)
पुरुष चेतन । वह अपरिणामी है। इसलिए परिणामी बुद्धि या ज्ञान उसका स्वरूप नहीं है । वह असंहत है । वह त्रिगुणातीत हैं । (९२) वह सुख, दुःख और मोह से रहित है । वह एक नहीं है, परन्तु अनेक हैं ।
पुरुष और प्रकृति का विशेष स्वरूप प्रस्तुत ग्रंथ के माध्यम से जाने । सांख्य दर्शन निरुपणोत्तर विशेषार्थ में सांख्यदर्शन के सभी तत्त्वो का सूक्ष्म विवेचन किया गया है । जब ग्रंथ ही बोलता हो, तब भूमिका में विस्तार करने की आवश्यकता नहीं रहती हैं, केवल विषयो की हल्की सी झाँकी ही देनी होती है ।
अविद्या के कारण प्रकृति और पुरुष का संयोग हैं और इस अविद्याजन्य संयोग के परिणाम से प्रकृति में से बुद्धि इत्यादि की सृष्टि होती है । उसके बाद बुद्धि का पुरुष में और पुरुष का बुद्धि में प्रतिबिंब पडता है। इस के कारण पुरुष परिणामी न होने पर भी परिणामी लगता हैं । वह कर्ता, भोक्ता, ज्ञानी न होने पर भी कर्ता - भोक्ता और ज्ञानी जैसा लगता है। प्रकृति अचेतन होने पर भी चेतन जैसी लगती है । जब अविद्या दूर होती है तब उसके कारण हुआ संयोग दूर होता है और प्रकृति में से बुद्धि इत्यादि की सृष्टि अटक जाती है । इसलिए पुरुष और बुद्धि का एक दूसरे में प्रतिबिंब पडने का प्रश्न ही नहीं रहता है । पुरुष स्वरूप में ही स्थिर हो जाता हैं । यही पुरुष की मुक्ति है ।
यह अविद्या इस प्रकृति - पुरुष का अविवेक हैं, ऐसा सांख्यदर्शन कहता । जब कि विद्या यह उन दोनों का विवेक है, यह विवेक ही मुक्ति का उपाय है ।
सांख्य एक जन्म में से दूसरे जन्म में संस्कारो के वाहकरूप सूक्ष्म शरीर का स्वीकार करते है । वह सर्ग से लेकर प्रलय तक प्रवाहरूप से एक ही हैं । उसके प्रवाह का विच्छेद सर्ग दरमियान नहीं होता है । उसके घटक महत् से लेकर पाँच तन्मात्रा तक के तत्व हैं । (९३)
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प्रमाणमीमांसा :
सांख्यदर्शन में प्रमाण का सामान्य लक्षण हैं- " अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्" अर्थ की उपलब्धि में जो कारण बने उसे प्रमाण कहा जाता है । सांख्यमतानुसार प्रमाण के तीन प्रकार है । (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) शब्द । तीनों प्रमाणो का स्वरूप प्रस्ततु ग्रंथ की श्लोक ४३ की टीका में दिया हैं । इस ग्रंथ में तीनों प्रमाण के लक्षण ईश्वरकृष्ण रचित सांख्यकारिका के आधार पर दिये गये हैं ।
91. परस्परं संयोगविभागस्वभावाः, तेन गुणानां द्रव्यत्वं सिद्धम् (योगवा. २ - १८) पुरुषेण सह संयोगविभागधर्माणां (तत्त्ववे. २- १८ ) 92. सां.का. १७ । 93. सां. का. ४० से ४४ ।
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