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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-४, जैन दर्शन का ग्रंथकलाप
५१३ प्र. ६ श्री संस्तारक प्रकीर्णक (२९) : इसमें अंतिम संथारे का मार्मिक वर्णन है । अंतिम आराधना क्षमापना की आदर्श विधि के साथ ऐसी उत्तम आराधना के बल से प्राप्त होते पंडित मरण की महत्ता बताके असंख्य महापुरुषो के उदाहरण रखे हैं । जिन्हों ने बहोत ही विषम स्थिति में भी पंडित मरण का आराधन किया था । मूल १५५ श्लोक प्रमाण आ.श्री भुवनतुंगसूरिजी विरचित ११० श्लोक प्रमाण टीका ।
प्र. ७ श्री गच्छाचार प्रकीर्णक (३०) : इसमें सुविहित साधुओं की परंपरा टिकाने वाले गच्छ की आदर्श मर्यादाओं का वर्णन है । गुरुकुलवास की महत्ता बताने के साथ स्वच्छंदता को रोकने पर जोर दिया गया है । ___ इसमें ५८५९ श्लोक प्रमाण वृत्ति, (२) १५६० श्लोक प्रमाण अवचूरि (३) श्री हर्षकुलगणिजी विरचित १६०० श्लोक प्रमाण अवचूरि (४) ४०० श्लोक प्रमाण अवचूरि है । इसमें मूल १७५ श्लोक प्रमाण है ।
प्र. ८ श्री गणिविद्या प्रकीर्णक (३१) : इसमें ज्योतिष संबंधी प्राथमिक माहितीओं का वर्णन है । गणि अर्थात् आचार्य को प्रतिष्ठा, दीक्षा, तपस्या, उद्यापन आदि में आवश्यक मुहूर्त शुद्धि का अधिकार इसमें बताया हैं । मूल श्लोक १०५ है।
प्र. ९ श्री देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक (३२) : इसमें ३२ इन्द्रो का वर्णन है । साथ में नक्षत्रो का चंद्र के साथ संबंध, सिद्ध शीला का स्वरूप, सिद्धो की अवगाहना, उनके निरुपम सुख आदि का भी वर्णन है । मल श्लोक ३७५ है। __ प्र. १० श्री मरणसमाधि प्रकीर्णक (३३) : इसमें मरण को सुधारने के लिए आदर्श पद्धतियाँ तथा मन की चंचलता, कषाय की उग्रता, वासना की प्रबलता रोकने के उत्तम उपाय और आराधक अनेक पुण्यात्माओं के दृष्टांत है । मूल श्लोक ८३७ है। छः छेदसूत्रो की माहिती :
१. श्री निशीथ सूत्र (३४) : यह आगम नौंवे पूर्व में से संकलित हुआ है । श्री आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध में १६ अध्ययन के बाद चार चूलिका के बाद पाँचवी चूलिका रुप यह आगम हैं ।
इस आगम में पंचाचार का विस्तार से वर्णन के साथ संयम मार्ग पर चलनेवाले को लगते दोषो का निराकरण करने के लिए आवश्यक व्यवस्था तंत्र का मार्मिक स्वरूप है । इसलिए ही इसको स्वतंत्र आगम माना है । निशीथ : मध्यरात्री के समय योग्य अधिकारी शिष्यो को गुप्त में जो आगम पढाया जाये ऐसा महत्त्वपूर्ण आगम हैं ।
२. श्री दशाश्रुत स्कंध (३५) : इस आगम का दूसरा नाम “आचार दशा" भी है । इस आगम में नीचे बताये अनुसार वर्णन हैं ।
२० असमाधि स्थान, ११ शबल दोष (चारित्र को मलिन करनेवाली चीजो का वर्णन), ३३ गुरु की आशातना, ८ आचार्य की संपदा, ११ श्रावको की प्रतिमायें, १२ साधुओं की प्रतिमायें, ३० महामोहनीय कर्म बंधने के कारण, ९ नियाणा आदि । इसके उपरांत प्रभु महावीर भगवंत का जीवन चरित्र है । इस सूत्र का आठवाँ अध्ययन श्री कल्पसूत्र-बारसा सूत्र हैं। जो प्रतिवर्ष धूमधाम से पर्युषणा पर्व में पढा जाता हैं ।
३. श्री बृहत् कल्पसूत्र (३६) : यह आगम प्रत्याख्यान प्रवाद नाम के पूर्व में से पू. श्री भद्रबाहुस्वामीजी म. ने संकलित किया हुआ हैं । इसमें साधु के मूल गुण और उत्तरगुणो को लागु होते प्रायश्चित्तों का अधिकार है ।
मुख्यतः साधु-साध्वी के आचार को लागु होता यह आगम है । छद्मस्थता के कारण होते या लगते दोषो का शोधन करने की व्यवस्थित विचारणा यह आगम पूरी करता हैं ।
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