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________________ ५०४ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद मिलता है । नाम कर्म को उससे कुछ अधिक हिस्सा मिलता है । गोत्र कर्म का हिस्सा भी नाम कर्म जितना ही होता है। उससे कुछ अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इनमें से प्रत्येक कर्म को प्राप्त होता है। इन तीनों का भाग समान रहता है । इससे भी अधिक भाग मोहनीय कर्म के हिस्से मैं जाता है । सब से अधिक भाग वेदनीय कर्म को मिलता है । इन प्रदेशों का पुनः उत्तरप्रकृतियों - उत्तरभेदों में विभाजन होता है । प्रत्येक प्रकार के बद्ध कर्म के प्रदेशों की न्यूनता-अधिकता का यही आधार है । कर्म की विविध अवस्थाएँ : जैन कर्मशास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है । ये अवस्थाएँ कर्म के बन्धन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय आदि से सम्बन्धित हैं । इनका हम मोटे तौर पर ग्यारह भेदों में वर्गीकरण कर सकते हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं : १. बन्धन, २ सत्ता, ३. उदय, ४. उदीरणा, ५. उद्वर्तना, ६. अपवर्तना, ७. संक्रमण, ८. उपशमन, ९. निधत्ति, १०. निकाचन, ११. अबाध । १. बन्धन-आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं का बँधना अर्थात् क्षीर-नीरवत् एकरूप हो जाना बन्धन कहलाता है । बन्धन के बाद ही अन्य अवस्थाएँ प्रारम्भ होती हैं । बन्धन चार प्रकार का होता है : प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध अथवा रसबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनका वर्णन पहले किया जा चुका है । २. सत्ता-बद्ध कर्म परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षय होने तक आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं । इसी अवस्था का नाम सत्ता है । इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए विद्यमान रहते हैं । ३. उदय-कर्म की स्वफल प्रदान करने की अवस्था का नाम उदय है । उदय में आनेवाले कर्म-पुद्गल अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं । कर्म-पुद्गल का नाश क्षय अथवा निर्जरा कहलाता है । ४. उदीरणा-नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है । जैन कर्मवाद कर्म की एकान्त नियति में विश्वास नहीं करता । जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत काल से पहले फल पकाये जा सकते हैं, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत समय से पूर्व बद्ध कर्मों को भोगा जा सकता है । सामान्यतः जिस कर्म का उदय जारी होता है, उसके सजातीय कर्म की ही उदीरणा संभव होती है । बन्धन, सत्ता, उदय और उदीरणा में कितनी कर्म-प्रकृतियाँ (उत्तरप्रकृतियाँ) होती हैं, इसका भी जैन कर्मशास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है । बन्धन में कर्मप्रकृतियों की संख्या एक सौ बीस, उदय में एक सौं बाईस, उदीरणा में भी एक सौ बाईस तथा सत्ता में एक सौ अठावन मानी गई है । नीचे की तालिका में इन चारों अवस्थाओं में रहनेवाली उत्तरप्रकृतियों की संख्या दी जाती है : बन्ध उदय उदीरणा सत्ता १. ज्ञानावरणीय कर्म २. दर्शनावरणीय कर्म ९ ९ ३. वेदनीय कर्म ४. मोहनीय कर्म २६ ५. आयु कर्म __४ ४ ६. नाम कर्म ६७ ६७ ६७ ७. गोत्र कर्म ८. अन्तराय कर्म योग १२० १२२ १२२ « P १५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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