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कर्म
षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद
५०३ (८) अन्तराय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं :(15) दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। जिस कर्म के उदय से दान करने का उत्साह नहीं होता वह दानान्तराय कर्म है । जिस कर्म का उदय होने पर उदार दाता की उपस्थिति में भी दान का लाभ अर्थात् प्राप्ति न हो सके वह लाभान्तराय कर्म है । अथवा योग्य सामग्री के रहते हुए भी अमीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होना लाभान्तराय कर्म का कार्य है । भोग की सामग्री मौजूद हो और भोग करने की इच्छा भी हो फिर भी जिस कर्म के उदय से प्राणी भोग्य पदार्थों का भोग न कर सके वह भोगान्तराय कर्म है । इसी प्रकार उपभोग्य वस्तुओं का उपभोग न कर सकना उपभोगान्तराय कर्म का फल है । जो पदार्थ एक बार भोगे जाते हैं वे भोग्य हैं तथा जो पदार्थ बार-बार भोगे जाते है वे उपभोग्य हैं । अन्न, फल आदि भोग्य पदार्थ हैं । वस्त्र, आभूषण, स्त्री आदि उपभोग्य पदार्थ हैं । जिस कर्म के उदय से प्राणी अपने वीर्य अर्थात् सामर्थ्य-शक्ति-बल का चाहते हुए भी उपयोग न कर सके उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं । इस तरह आठ प्रकार के मूल कर्मों अथवा मूल कर्म प्रकृतियों के कुल एक सौ अठावन भेद होते हैं । • कर्मों की स्थिति : जैन कर्मग्रन्थों में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की विभिन्न स्थितियाँ (उदय में रहने का काल) बताई गई हैं जो इस प्रकार हैं :
उत्कृष्ट स्थिति(16) जघन्य स्थिति(17) १. ज्ञानावरणीय तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त २. दर्शनावरणीय तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त ३. वेदनीय
तीसकोटाकोटि सागरोपम बारह मुहूर्त ४. मोहनीय सत्तर कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त ५. आयु तैंतीस सागरोपम
अन्तर्मुहूर्त ६. नाम
बीस कोटाकोटि सागरोपम आठ मुहूर्त ७. गोत्र
बीस कोटाकोटि सागरोपम आठ मुहूर्त ८. अन्तराय
तीस कोटाकोटि सागरोपम सागरोपम आदि समय के विविध भेदों के स्वरूप का स्पष्टीकरण के लिए 'जैनदर्शन के विशेषार्थ' में देखना और अधिक स्पष्टता के लिए अनुयोगद्वार आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए । इससे जैनों की कालविषयक मान्यता का भी ज्ञान हो सकेगा।
कर्मफल की तीव्रता-मन्दता : कर्मफल की तीव्रता और मन्दता का आधार तन्निमित्तक कषायों की तीव्रता-मन्दता है । जो प्राणी जितना अधिक कषाय की तीव्रता से युक्त होगा, उसके पापकर्म अर्थात् अशुभकर्म उतने ही प्रबल एवं पुण्यकर्म अर्थात् शुभकर्म उतने ही निर्बल होंगे । जो प्राणी जितना अधिक कषायमुक्त एवं विशुद्ध होगा उसके पुण्यकर्म उतने ही अधिक प्रबल एवं पापकर्म उतने ही अधिक दुर्बल होंगे।
कर्मों के प्रदेश : प्राणी अपनी कायिक आदि क्रियाओं द्वारा जितने कर्मप्रदेश अर्थात् कर्मपरमाणुओं का संग्रह करता है वे विविध प्रकार के कर्मों के कर्मों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध होते हैं । आयु कर्म को सबसे कम हिस्सा 15.दानादीनाम् (त.सू. ८/१४) 16.आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः । सप्ततिर्मोहनीयस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य नामगोत्रयोविंशतिः (त.सू. ८/१५-१६-१७-१८) 17. अपरा द्वादशमूहुर्ता वेदनीयस्य । नामगोत्रयोरष्टौ। शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् । (त.सू. ८/१९-२०-२१)
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