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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद __सत्ता में समस्त उत्तरप्रकृतियों का अस्तित्व रहता है, जिनकी संख्या एक सौ अठावन है । उदय में केवल एक सौ बाईस प्रकृतियाँ रहती हैं, क्योंकि इस अवस्था में पंदरह बन्धन तथा पाँच संघानत-नाम कर्म की ये बीस प्रकृतियाँ अलग से नहीं गिनी गई हैं, अपितु पाँच शरीरों में ही उनका समावेश कर दिया गया है । साथ ही वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श इन चार पिण्डप्रकृतियों की बीस उत्तरप्रकृतियों के स्थान पर केवल चार ही प्रकृतियाँ गिनी गई हैं । इस प्रकार कुल एक सौ अठावन प्रकृतियों में से नाम कर्म की छत्तीस (बीस और सोलह) प्रकृतियाँ कम कर देने पर एक सौ बाईस प्रकृतियाँ शेष रह जाती हैं, जो उदय में आती हैं । उदीरणा में भी ये ही प्रकृतियाँ रहती हैं, क्योंकि जिस प्रकृति में उदय की योग्यता रहती है उसी की उदीरणा होती है । बन्धनावस्था में केवल एक सौ बीस प्रकृतियों का ही अस्तित्व माना गया है । सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय कर्मों का बन्ध अलग से न होकर मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के रूप में ही होता है, क्योंकि (कर्मजन्य) सम्यक्त्व और सम्यक्-मिथ्यात्व मिथ्यात्व की ही विशोधित अवस्थाएँ हैं । इन दो प्रकृतियों को उपर्युक्त एक सौ बाईस प्रकृतियों में से कम कर देने पर एक सौ बीस प्रकृतियाँ बाकी बचती हैं, जो बन्धनावस्था में विद्यमान रहती हैं।
५. उद्वर्तना-बद्धकर्मों की स्थिति और अनुभाग-रस का निश्चय बन्धन के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार होता है । उसके बाद की स्थिति विशेष अथवा भावविशेष-अध्यवसायविशेष के कारण उस स्थिति तथा अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तना कहलाता है । इस अवस्था को उत्कर्षण भी कहते हैं ।
६. अपवर्तना-बद्धकर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसायविशेष से कमी कर देने का नाम अपवर्तना है । यह अवस्था उद्वर्तना से बिल्कुल विपरीत है । इसका दूसरा नाम अपकर्षण भी है । इन अवस्थाओं की मान्यता से यही सिद्ध होता है कि किसी कर्म की स्थिति एवं फल की तीव्रता-मन्दता में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता, ऐसी बात नहीं है । अपने प्रयत्नविशेष अथवा अध्यवसायविशेष की शुद्धता-अशुद्धता से उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। एक समय हमने कोई अशुभ कार्य किया अर्थात् पापकर्म किया और दूसरे समय शुभ कर्म किया तो पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति आदि में यथासम्भव परिवर्तन हो सकता है । इसी प्रकार से समयानुसार परिवर्तन हो सकता है । तात्पर्य यह है कि, व्यक्ति के अध्यवसायों के अनुसार कर्मों की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है ।
७. संक्रमण-एक प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन होना संक्रमण कहलाता है । संक्रमण किसी एक मूल प्रकृति की उत्तर प्रकृतियों में ही होता है, विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं । दूसरे शब्दों में सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण माना गया है, विजातीय प्रकृतियों में नहीं । इस नियम के अपवाद के रूप में आचार्यों ने यह भी बताया है कि आयु कर्म की प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में तथा दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियों में ही (कुछ अपवादों को छोडकर) परस्पर संक्रमण होता है । इस प्रकार आयु कर्म की चार उत्तरप्रकृतियाँ, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय व दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियाँ उपर्युक्त नियम के अपवाद हैं ।
८. उपशमन-कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होती उसे उपशमन कहते हैं । इस अवस्था में उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण की संभावना का अभाव नहीं होता । जिस प्रकार राख से आवृत अग्नि उस अवस्था में रहती हुई अपना कार्यविशेष नहीं करती किन्तु आवरण हटते ही पुनः प्रज्वलित होकर अपना कार्य करने को तैयार हो जाती है, उसी प्रकार उपशमन अवस्था में रहा हुआ कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदय में आकर फल प्रदान करना शुरू कर देता है।
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