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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद का घात होता है । मोहनीय कर्म सुख-आत्मसुख-परमसुख-शाश्वतसुख के लिये घातक है । अन्तराय कर्म से आत्मा का वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है । वेदनीय कर्म अनुकूल एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख का कारण है । आयु कर्म से आत्मा को नरकादि विविध भवों की प्राप्ति होती है । नाम कर्म के कारण जीव को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं । गोत्र कर्म प्राणियों के उच्चत्व-नीचत्व का कारण है ।
1 आठ कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ :
(१) ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तर-प्रकृतियाँ है(7) : १. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मनःपर्यय, मन:पर्यव अथवा मनःपर्याय ज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण । मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को आच्छादित करता है । श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्रों अथवा शब्दों के पठन तथा श्रवण से होनेवाले अर्थज्ञान का निरोध करता है । अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना आत्मा से होनेवाले रूपी द्रव्यों के ज्ञान को आवृत करता है । मनःपर्यायज्ञानावरणीय कर्म मनःपर्यायज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा से संज्ञी-समनस्क-मन वाले जीवों के मनोगत भावों को जाननेवाले ज्ञान को आच्छादित करता है । केवलज्ञानावरणीय कर्म केवलज्ञान अर्थात् लोक के अतीत, वर्तमान एवं अनागत समस्त पदार्थों को युगपत्-एक साथ जाननेवाले ज्ञान को आवृत करता है ।
दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर-प्रकृतियाँ हैं(8) : १. चक्षुर्दर्शनावरण, २. अचक्षुर्दर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा, ६ निद्रानिद्रा, ७. प्रचला, ८. प्रचलाप्रचला और ९. स्त्यानर्द्धि-स्त्यानगृद्धि । आँख के द्वारा पदार्थों के सामान्य धर्म के ग्रहण को चक्षुर्दर्शन कहते हैं । इसमें पदार्थ का साधारण आभासमात्र होता है । चक्षुर्दर्शन को आवृत करनेवाला कर्म चक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । आँख को छोडकर अन्य इन्द्रियों तथा मन से जो पदार्थों का सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुर्दर्शन कहते हैं । इस प्रकार के दर्शन का आवरण करनेवाला कर्म अचक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न रखते हुए आत्मा द्वारा रूपी पदार्थों का सामान्य बोध होने का नाम अवधिदर्शन है । इस प्रकार के दर्शन को आवृत करनेवाला कर्म अवधिदर्शनावरण कहलाता है । संसार के अखिल त्रैकालिक पदार्थों का सामान्यावबोध केवलदर्शन कहलाता है । इस प्रकार के दर्शन का आवरण करनेवाला कर्म केवलदर्शनावरण के नाम से प्रसिद्ध है । निद्रा आदि अंतिम पाँच प्रकृतियाँ भी दर्शनावरणीय कर्म का ही कार्य है । जो सोया हआ प्राणी थोडी सी आवाज से जग जाता है अर्थात जिसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पडता उसकी नींद को निद्रा कहते हैं । जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उस कर्म का नाम भी निद्रा है । जो सोया हुआ प्राणी बडे जोर से चिल्लाने, हाथ से जोर से हिलाने आदि से बड़ी मुश्किल से जागता है उसकी नींद एवं तन्निमित्तक कर्म दोनों को निद्रानिद्रा कहते हैं । खडे-खडे या बैठे-बैठे नींद लेने का नाम प्रचला है । उसका हेतुभूत कर्म भी प्रचला कहलाता है। चलते-फिरते नींद लेने का नाम प्रचलाप्रचला है । तन्निमित्तभूत कर्म को भी प्रचलाप्रचला कहते हैं । दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्य विशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करने का नाम स्त्यानद्धि-स्त्यानगृद्धि है । जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उसका नाम भी स्त्यानर्द्धि अथवा स्त्यानगृद्धि है ।
(३) वेदनीय अथवा वेद्य कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं।9) : साता और असाता । जिस कर्म के उदय से प्राणी को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से सुख का अनुभव होता है उसे सातावेदनीय कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से
7. मत्यादीनाम् ।। त.सू. ८/७) 8. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च
(त.सू. ८८) 9. सदसवेद्ये (त.सू. ८/९)
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