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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद
४९९ कर्मबन्ध के कारण : कमबन्धन का (तत्त्वार्थ-सूत्र ग्रंथानुसार) पांच कारण है ।(1) (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग । विपरीत दर्शन को मिथ्यादर्शन कहते है । हेय को उपादेय और उपादेय को हेय मानना वह मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व) है । कुदेवादि में सुदेवादि की बुद्धि को भी मिथ्यात्व कहते है । जिससे जीव हिंसादि पाप से विराम (निवत्त) न हो सके. उसे अविरति कहते है । जो आत्मा से सर्वथा भिन्न अनात्म पदार्थो में आकल बनाता है (उलझन में डालता है), वह प्रमाद कहलाता है । जिससे संसार का लाभ होता है, वह कषाय कहलाता है। (कष = संसार, आय = लाभ) इसके चार प्रकार है । क्रोध, मान, माया और लोभ । यहाँ क्रोध और मान का द्वेष में तथा माया और लोभ का राग में अंतर्भाव होता है ।(2) मन-वचन-काया के व्यापार को योग कहलाता है । जैनदर्शन ये पाँच कर्मबन्धन के कारण मानता है ।(3) संक्षेप में देखिए तो राग-द्वेष जनित प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का प्रधान कारण है ।(4)
कर्मबन्ध की प्रक्रिया : कर्मग्रन्थों में कर्मबन्ध की प्रक्रिया का सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है कि, जहाँ कर्मयोग्य पुद्गल-परमाणु विद्यमान न हो । जब जीव अपने मन, वचन और काया से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से कर्मयोग्य पुद्गल-परमाणुओं का आकर्षण होता है। जितने क्षेत्र अर्थात् प्रदेश में उसका आत्मा विद्यमान रहता है । उतने ही प्रदेश में विद्यमान परमाणु उसके द्वारा उस समय ग्रहण किये जाते है अन्य नहीं । प्रवत्ति की तरतमता के अनसार परमाणओं की संख्या में भी तारतम्य होता है । गृहीत कर्मयोग्य पुद्गल-परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध होना उसे प्रदेश-बन्ध कहलाता है । इन्हीं परमाणुओं का ज्ञानावरण आदि अनेक रूपों में परिणत होना प्रकृति-बन्ध कहलाता है । प्रदेश बंध में कर्म-परमाणुओं का परिमाण अभिप्रेत है, जब कि प्रकृति-बन्ध में कर्मों का स्वभाव निश्चित होता है । कर्मरूप से गृहीत पुद्गल-परमाणुओं के कर्मफल के काल के निश्चय को स्थितिबन्ध कहलाता है । कर्मविपाक की तीव्रता-मन्दता का निश्चय को रसबन्ध कहलाता है । इस प्रकार कर्मबंध के चार प्रकार है(5) (कर्मबन्ध के चार प्रकार का विस्तृत स्वरूप “जैनदर्शन का विशेषार्थ" परिशिष्ट में बन्ध तत्त्व के विवेचन में दिया है।) यहाँ उल्लेखनीय है कि, प्रदेशबंध एवं प्रकृतिबंध 'योग' से होता है । स्थितिबंध में कषाय की और रसबंध (अनुभाग बंध) में लेश्या की भूमिका होती है ।
कर्म की मूल प्रकृतियाँ : जैन कर्म शास्त्र में कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ मानी गई है । ये प्रकृतियाँ प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती है । इन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं : (१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय।(6) इस में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - ये चार घाती प्रकृतियाँ कहलाती है, क्योंकि इन से आत्मा के चार मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख (चारित्र) और वीर्य) का घात होता है । शेष चार अघाती प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती । इतना ही नहीं, ये आत्मा को ऐसा रूप प्रदान करती हैं जो उसका निजी नहीं है, अपितु पौदर्गालक-भौतिक है । ज्ञानावरण कर्म आत्मा के ज्ञानगुण का घात करता है । दर्शनावरण कर्म से आत्मा के दर्शनगुण
1. मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः ।।८-१।। (तत्त्वा. सू.) 2. मायालाभौ रागः क्रोधमानौ द्वेषश्च । (षड्.समु. ४५ टीका) 3. नैयायिक और वैशेषिक दर्शन मिथ्याज्ञान को कर्मबन्ध का कारण मानते हैं । योग एवं सांख्य दर्शन में प्रकृति पुरुष के अभेदज्ञान को कर्मबन्ध का कारण माना गया है । वेदांत आदि दर्शनों में अविद्या या अज्ञान को कर्मबन्ध का कारण बताया गया है । बौद्धो ने वासना या संस्कार को कर्मबन्ध का कारण बताया है । जैनदर्शन ने कर्मबन्ध के मिथ्यात्वादि पांच कारण बताया है और संक्षेप में मिथ्यात्व एक ही कारण कह सकते हैं । 4. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते । स बन्धः।। (८-२/३) (तत्त्वाः -सू)। 5. प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः ।।८-४ ।। (तत्त्वा-सू.) । 6. आद्या ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय मोहनीयायुष्क-नाम-गोत्रान्तरायाः ।।८-५।। (तत्त्वा.सू.) ।
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