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________________ ४९८ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद परिशिष्ट - ३ जैनदर्शन का कर्मवाद जगत में जो विषमता (वैषम्य) दृष्टिगोचर होती है, वह कर्मवाद को समजने से ज्ञात होती है । जन्म एवं मृत्यु जड कर्म है । जीवो को प्राप्त होनेवाला सुख और दुःख स्वकृत कर्मफल के अतिरिक्त ओर कुछ नहीं है । जीव का संसार परिभ्रमण कर्मवश ही है । यद्यपि कर्मवाद की प्रस्थापना में भारत वर्ष के सभी दार्शनिक शाखाओं ने अपना दृष्टिकोण पेश किया है । फिर भी जैन परंपरा में इसका जो सुविकसित एवं सुव्यवस्थित-सुसम्बद्ध स्वरूप दृष्टिगोचर होता है वह अनुपलब्ध है । श्री जैनाचार्यों एवं श्री जैनमुनिवरों ने इस विषय में बहोत परिश्रम उठाकर विस्तृत साहित्य की रचना की है। जो कर्मवाद के जिज्ञासुओं के लिए बहोत उपकारी है और साधना जीवन को मोक्ष प्रति उल्लसित बनाने के लिए उपयोगी भी है । सारांश में, संसार की सभी विषमताओं का समाधान प्राप्त करने के लिए और मोक्ष साधना को सही दिशा में आगे बढाने के लिए जैनदर्शन का कर्मवाद जानना और आत्मस्थ करना अनिवार्य है । कर्मवाद के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत ये हैं : (१) प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई फल अवश्य होता है । इस सिद्धांत को कार्य-कारणभाव या कर्म-फल भाव कहते है । (२) यदि किसी क्रिया का फल प्राणी के वर्तमान जीवन में प्राप्त नहीं होता, तो उसके लिए भविष्यकालीन जीवन अनिवार्य है । (३) कर्म का कर्ता एवं भोक्ता स्वतंत्र आत्मतत्त्व निरंतर एक भव से दूसरे भव में गमन करता रहता है । किसी न किसी भव के माध्यम से ही वह एक निश्चित कालमर्यादा में रहता हुआ अपने पूर्वकृत कर्मो का भोग एवं नवीन कर्मो का बन्धन करता है । कर्मो की इस परंपरा को तोडना भी उसकी शक्ति के बाहर नहीं है । (४) जन्मजात व्यक्तिभेद कर्मजन्य है । व्यक्ति के व्यवहार तथा सुख-दुःख में जो असामञ्जस्य या असमानता दिखाई देती है, वह कर्मजन्य ही है । (५) कर्मबन्ध तथा कर्मभोग का अधिष्ठाता जीव स्वयं ही है । तदतिरिक्त जितने भी हेतु दृष्टिगोचर होते है, वे सब सहकारी तथा निमित्तभूत है । कर्म का अर्थ : 'कर्म' शब्द अनके अर्थ में प्रयुक्त होता है । जैनदर्शन में कर्म दो प्रकार का माना गया भावकर्म और द्रव्यकर्म । राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय परिणाम भावकर्म कहलाता है । कार्मणजाति के पुद्गल ( जडतत्त्व विशेष ) कि, जो कषाय के कारण आत्मा - चेतनतत्त्व के साथ मिलजुल जाता है, वह द्रव्यकर्म कहलाता हैं अर्थात् आत्मा के साथ मिलजुल जाता हुआ कर्मपुद्गल को द्रव्यकर्म कहलाता है । अन्य दर्शनकारों ने भी अन्य शब्द प्रयोग से कर्म का स्वीकार किया है । वेदान्त दर्शन में कर्म के लिए, अविद्या, माया और प्रकृति शब्द उपलब्ध है । मीमांसा दर्शन उसको अपूर्व नाम से पुकारता है । बौद्धदर्शन में वह वासना शब्द से प्रसिद्ध है । योग एवं सांख्य दर्शन में 'आशय' शब्द का प्रयोग होता है । न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में वह धर्माधर्म- अदृष्ट नाम से प्रसिद्ध है । Jain Education International कर्म आत्मतत्त्व का विरोधी तत्त्व है । जिस से आत्मा का मूलभूत शुद्ध स्वरूप आवृत हुआ है । इसलिए आत्मा के ज्ञानादि गुणो के प्रकाशन का बाध होता है । सर्वकर्म का क्षय होने पर ही आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप में अवस्थित होता है । आत्मा और कर्म का संबंध अनादि है । जीव पुराने कर्मों का क्षय करता हुआ नवीन कर्म का उपार्जन करता है। जब तब जीव के पूर्वोपार्जित समस्त कर्मो का क्षय नहीं हो जाते एवं नवीन कर्मों का आश्रव (आगमन) बन्द नहीं हो जाता तब तक उसकी भवबन्धन से मुक्ति नहीं होती । एक बार समस्त कर्मो का क्षय हो जाने पर पुनः कर्मोपार्जन नहीं होता, क्योंकि उस अवस्था में कर्मबन्धन का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता । आत्मा की इसी अवस्था को मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण या सिद्धि कहते हैं । : For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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