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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-३, कर्मवाद ५०१ प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर दुःख का संवेदन होता है उसे असातावेदननीय कर्म कहते हैं । आत्मा को विषयनिरपेक्ष स्वरूप-सुख का संवेदन किसी भी कर्म के उदय की अपेक्षा न रखते हुए स्वत: होता है। इस प्रकार का विशुद्ध सुख आत्मा का निजी धर्म है । वह साधारण सुख की कोटि से ऊपर हैं । (४) मोहनीय कर्म की अट्ठावीस उत्तरप्रकृतियाँ है(10) । इस में मुख्य दो उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : दर्शनमोह अर्थात् दर्शन का घात और चारित्रमोह अर्थात् चारित्र का घात । जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझने का नाम दर्शन है । यह तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप आत्मगुण है । इस गुण का घात करनेवाले कर्म का नाम दर्शनमोहनीय है । जिसके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं । चारित्र का घात करनेवाला कर्म चारित्र मोहनीय कहलाता है । दर्शन मोहनीय कर्म के पुनः तीन भेद है : सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय । सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक-कर्मपरमाणु शुद्ध होते हैं । यह कर्म शुद्ध-स्वच्छ परमाणुओं वाला होने के कारण तत्त्वरूचिरूप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुँचाता है किन्तु इसके उदय से आत्मा को स्वाभाविक सम्यक्त्वकर्मनिरपेक्ष सम्यक्त्व-क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होने पाता। परिणामतः उसे सूक्ष्म पदार्थों के चिन्तन में शंकाएँ हुआ करती हैं। मिथ्यात्व मोहनीय के दलिक अशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से प्राणी हित को अहित समझता है और अहित को हित । विपरीत बुद्धि के कारण उसे तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होने पाता । मिश्र मोहनीय के दलिक अर्धविशुद्ध होते हैं । इस कर्म के उदय से जीव को न तो तत्त्वरुचि होती है, न अतत्त्वरुचि । इसका दूसरा नाम सम्यक्-मिथ्यात्व मोहनीय है । यह सम्यक्त्वमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का मिश्रिरूप है, जो तत्त्वार्थ श्रद्धान और अतत्त्वार्थ-श्रद्धान इन दोनों अवस्थाओं में से शुद्ध रूप से किसी भी अवस्था को प्राप्त नहीं करने देता । मोहनीय के दूसरे मुख्य भेद चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं : कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय। कषायमोहनीय मुख्यरूप से चार प्रकार का है : क्रोध, मान, माया और लोभ। क्रोधादि चारों कषाय तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से पुनः चार-चार प्रकार के हैं: अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । इस प्रकार कषायमोहनीय कर्म के कुल सोलह भेद हुए, जिनके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोधादि के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता है । यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है । अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरतिरूप श्रावकधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। इसकी अवधि एक वर्ष है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सर्वविरतिरूप श्रमणधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती । इसकी स्थिति चार महिने की है। संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यात चारित्ररूप सर्वविरति प्राप्त नहीं कर सकता । यह एक पक्ष की स्थिति वाला है । उपर्युक्त कालमर्यादाएँ साधारण दृष्टि-व्यवहार नय से हैं । इन में यथासंभव परिवर्तन भी हो सकते है । कषायों के उदय के साथ जिनका उदय होता है अथवा जो कषायों को उत्तेजित करते हैं उन्हें नोकषाय कहते हैं ।(11) नोकषाय के नौ भेद हैं : १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. शोक, ५. भय, ६. जुगुप्सा, ७. स्त्रीवेद, ८. पुरुषवेद और ९. नपुंसकवेद। स्त्रीवेद के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ संभोग करने की इच्छा होती है । पुरुष वेद के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ संभोग करने की इच्छा होती है । नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ संभोग करने की कामना होती है। यह वेद संभोग की कामना के अभाव के रूप में नहीं अपितु तीव्रतम कामाभिलाषा के रूप में है, जिसका लक्ष्य स्त्री और पुरुष दोनों हैं । इसकी निवृत्ति-तुष्टि चिरकाल एवं चिरप्रयत्नसाध्य है । इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल २८ उत्तर प्रकृतियाँ - भेद होते हैं : ३ दर्शनमोहनीय - १६ कषायमोहनीय - ९ नोकषायमोहनीय । 10.दर्शनचारित्रमोहनीय-कषायनोकषायवेदनीयाख्यात्रिद्विषोडशनव भेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानावरणसंज्वलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोमा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः (त.सू. ८/१०) 11. कषायसहवर्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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