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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
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कार्य वह अनित्य हैं । शास्त्र में भी "कालनिष्ठाभावप्रतियोगित्वम्'') काल में रहे हुए अपने अभाव का प्रतियोगी जो हो वह अनित्य- इस लक्षण से प्रतिपादन किया हैं। वैसे पृथ्वी, चंद्र, भोगो के बारे में होती नित्यबुद्धि वह एक प्रकार की अविद्या हैं । काया में शुचिबुद्धि, दुःखप्रचुर में होती सुखप्रचुरता बुद्धि वह तीसरी अविद्या । पुत्रादि भोग के साधनो के बारे में होती आत्मबुद्धि वह चौथी अविद्या । यह अविद्यारुप मिथ्याज्ञान ही पुरुष को संसार की प्राप्ति करवाता हैं । अब अविद्या के साक्षात् कार्यरुप अस्मिता क्लेश का प्रतिपादन करते हैं । -
अस्मिता का स्वरुप : दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवाऽस्मिता ॥२-६॥( योगसूत्र)
सूत्रार्थ :- पुरुष तथा बुद्धिसत्त्व की स्वरुपतः तथा धर्मतः एकरुपत्वापत्ति अर्थात् एकत्वाभिमान वह अस्मिता हैं । यहाँ सूत्र में पुरुष और बुद्धिसत्त्व इन दोनों का भोक्तृभोग्य संबंध सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने "शक्ति" यह पद रखा हैं । सर्गकाल के बारे में तो बुद्धि स्वस्वरुप से होती हैं। इसलिए भोग्यरुप हैं; परन्तु प्रलयकाल के बारे में वह बुद्धि प्रकृति के बारे में लीन हो जाती हैं। इसलिए उस समय स्फुट भोग्यता उसमें नहीं हैं । तथापि उस समय वह भी बुद्धिसत्त्व अपनी वासना को प्रकृति में रखकर प्रकृतिरुप होता हैं। इसलिए उस समय भी उसमें भोग्यता की शक्ति होती हैं। अर्थात् भोग्यत्व शक्तिरुप से होता हैं । बुद्धि का आत्यंतिक लय हो, तब तक पुरुष और बुद्धि का भोक्तभोग्य संबंध होता हैं। पुरुष- अपरिणामी, उदासीन हैं । निष्क्रिय हैं। जब कि, बुद्धि परिणामी, क्रियावाली, प्रवृतिवाली हैं। दोनों विरुद्ध धर्मवाले होने पर भी ऐक्य का अभिमान अस्मिता के कारण होता हैं। इस अस्मिता क्लेश से ही जीव को भोग होता हैं । अर्थात् भोगमात्र वस्तुतः दुःखरुप होने से दुःख होता हैं। क्योंकि सुखदुःखादि बुद्धि की वृतियाँ होने से बुद्धि के धर्म हैं । उसका आरोप पुरुष में होता हैं। तब ''मैं सुखी', "मैं दुःखी'' इत्यादि प्रकार का भोग होता हैं । अब अस्मिता के कार्यरुप राग का प्रतिपादन करते हैं -
राग का स्वरूप : सुखानुशयी रागः ॥२-७॥ (योगसूत्र )
सूत्रार्थ :- सुख के साक्षात्कार से तथा सुख की स्मृति से होता, सुख तथा उसके साधनमात्र को विषय करनेवाला तृष्णारुप क्लेश वह राग हैं । सुख के विषय में राग दो तरह से होते हैं । (१) सुखसाक्षात्कार से (२) सुखस्मृति से । अब द्वेष का प्रतिपादन करते हैं
द्वेष का स्वरुप : दुःखानुशयी द्वेषः ॥२-८॥( योगसूत्र )
सूत्रार्थ :- दुःखानुभव से तथा दुःखस्मृति से होता, दुःख तथा दुःख के साधनमात्र को विषय करनेवाला जो क्रोधरुप क्लेश वह द्वेष । अब द्वेषमूलक भयविशेषरुप अभिनिवेश का प्रतिपादन करते हैं ।
अभिनिवेश का स्वरुप : स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारुढोऽभिनिवेशः ॥२-९॥(योगसूत्र)
सूत्रार्थ :- पूर्वजन्म की अपनी वासना से वहन होनेवाला अविद्वान की तरह विद्वान में भी उसी तरह से प्रसिद्ध जो शरीरानुबंध क्लेश वह अभिनिवेश हैं।
इस सूत्र से यह कहा कि, अभिनिवेश नाम का क्लेश जातमात्र कृमि इत्यादि से लेकर तत्त्वज्ञानरहित सर्व प्राणीयो में एकसमान रुप से रहा हुआ होता हैं । शरीर के वियोगरुप मरण का आंतक या भय वह अभिनिवेश । "अनित्य ऐसे देहादिक का मुजे वियोग न हो" ऐसा मरण-निवारण का आग्रह । उपरांत यह क्लेश अपने संस्कार से निरंतर वहन होनेवाला हैं । अर्थात् असंख्य बार अनुभव में आये मरण के दुःख से उस दुःख के प्रति जीव को द्वेष होता हैं । यह द्वेष संस्काररुप से चित्त में रहता हैं। बाद में उस संस्कार से मरण का आतंक होता
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