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________________ ४९४ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनाश्चित्तप्रसादनम् ॥१-३३॥(योगसूत्र) सूत्रार्थ :- सुखी, दुःखी, पुण्यशाली तथा पापी पुरुषो के बारे में क्रमश: मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न होता हैं। और उसके द्वारा स्थिति-स्थिरता के योग्य होता हैं - चित्त शुक्लधर्मरुप सत्त्वगुणवाला होता हैं। ईर्ष्या अर्थात् पराये के गुण सहन न होना वह । असूया- दूसरे के गुणो में दोष का आरोप करना वह । चित्त के ये दो दोष मैत्रीभावना से निवृत्त होते हैं। जैसे मित्र के दोष सहन होते हैं और उसके गुणो में कभी दोष का आरोप कोई करता नहीं हैं। सर्व जीव को मित्र मानने से ये दोनों दोषो की निवृत्ति होती हैं । उपरांत प्रत्येक मनुष्य को "मुजे सर्व सुख मिले'' इस प्रकार की राग नाम की वृत्ति होती हैं । उसमें समग्र सुख की सामग्री किसी को प्राप्त नहीं होती हैं। इसलिए वह राग निरंतर चित्त को कलुषित करता हैं । इस राग का भी इस भावना से बाध होता हैं। क्योंकि पुत्र का राज्य होने पर भी पिता को अपना लगता हैं । वैसे मैत्रीभावना से सर्व का सुख अपना लगता हैं । करुणा भावना से परोपकार की ईच्छारुप चित्तमल दूर होता हैं। इसलिए दूसरे की ओर का द्वेष दूर होता हैं। द्वेषबुद्धि जाती हैं। क्लेशों के नाम :- अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेषाः (पंच ) क्लेशाः ॥२-३॥ (योगसूत्र) सूत्रार्थ :- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश हैं। अविद्या क्षेत्रुमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥२-४॥ (योगसूत्र) सूत्रार्थ :- प्रसुप्ति, तनुता, विच्छिन्नता और उदारता, ये चारो अवस्थावाले अस्मिता इत्यादि चारो क्लेशो की प्रसवभूमि अविद्या हैं । क्लेशो की पांच अवस्था होती हैं । (१) दग्धबीजभावा, (२) प्रसुप्ति (३) तनुता (४) विच्छिन्नता, (५) उदारता । (१) दग्धबीजभावा :- अर्थात् जिसमें क्लेशो का स्व-स्व कार्य को उत्पन्न करने का सामर्थ्य दग्ध हो गया हैं उस प्रकार के क्लेशो की अवस्था । (२) प्रसुप्ति :- अर्थात् चित्त के बारे में शक्तिरुप से अर्थात् सूक्ष्मरुप से रहे हुए क्लेशो का स्वकार्य उत्पन्न करने का सामर्थ्य, जैसे दूध में दही बनाने का सामर्थ्य -बालक में स्त्रीविषयक रागादि । (३) तनुता :- अर्थात् क्लेश के प्रतिपक्ष के अनुष्ठान से क्लेशो का विवेकख्याति का बाध करने के लिए असमर्थ होना वह । (४) विच्छिन्नता :- अर्थात् विषय के अत्यंतसेवन से अथवा तो क्लेशो में से किसी से अभिभव पाने से क्लेश जो किंचित् काल अनभिव्यक्त होते हैं परन्तु जो क्लेश वह प्रतिबंधक के जाने से पुनः वही रुप में ही आविर्भाव पाते हैं, वे क्लेश विच्छिन्न कहे जाते हैं। और ऐसी अवस्था वह विच्छिन्नता हैं। (५) उदारता :- स्व-स्व विषय में क्लेशो का स्वाभाविकी वृत्ति पाकर रहना वह। अर्थात् अपने-अपने विषय के ध्यान से अभिव्यक्त हुए क्लेश उदार कहे जाते हैं । (अर्थात् जब क्रोध राग से अभिभव पाता हैं तब राग उदार हैं, और क्रोध विच्छिन्न हैं।) जीवन्मुक्त (चरमदेही) पुरुष में ये चारो भेद क्लेश के नाश हुए होते हैं । अन्य पुरुषो में चारो को सद्भाव होता हैं। • अविद्या का स्वरुपः-अनित्याशुचिदुःखानात्मसुनित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥२-५॥( योगसूत्र) सूत्रार्थ :- अनित्य, अशुचि, दुःखरुप तथा अनात्म पदार्थो के विषय में होती नित्यबुद्धि, शुचिबुद्धि, सुखबुद्धि, तथा आत्मबुद्धि ये चार प्रकार की मिथ्याबुद्धि (मिथ्याज्ञान) वह अविद्या हैं । जीवन्मुक्त से इतर पुरुषो में चार प्रकार की संसार के हेतुरुप अविद्या होती हैं । (तीनों काल में जो स्वस्वरुप से रहता नहीं हैं वह अर्थात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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