SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 606
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन ४९३ (i) अध्यात्म :- 'आत्मानं स्वसंघातमधिकृत्य वर्तते' इस व्युत्पत्ति से जो दुःख में मन तथा शरीर ही निमित्त माना जाता हैं वह अध्यात्म हैं। व्याधि इत्यादि शरीर के विकारो से प्रधानरुप से हुआ दुःख शारीरिक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि मन के विकारो से हुआ दुःख मानस हैं । (ii) आधिभौतिक :- 'भूतानि व्याघ्रादीनधिकृत्य जायते इति आधिभौतिकम्' - इस व्युत्पत्ति से बाघ (शेर), सर्प, बिच्छु, इत्यादि इस लोक के प्राणी से उत्पन्न हुआ दुःख आधिभौतिक हैं । (iii) आधिदैविक :- 'देवानधिकृत्य जायते इति आधिदैविकः' देवलोक के प्राणी से होता दुःख आधिदैविक हैं, जैसे कि, अतिवृष्टि, वृष्टि, अनावृष्टि, ताप (धूप) इत्यादि से होता दुःख । भाष्य में दुःख का लक्षण "येनाभिहिताः प्राणिनस्तदुपधाताय प्रयतन्ते - जिसका अनुभव होने से जीव उसको दूर करने के प्रयत्नवाले होते हैं वह दुःख ।' दुःख रजोगुण का कार्य हैं। दुःख रजोगुण से अविनाभावी होने से अंतःकरण को विक्षिप्त रखता हैं । तथा दुःख होने से वृत्ति उसे दूर करने के साधन में व्याप्त होती हैं । इसीलिए यह दुःख रजोगुणवाले विक्षिप्त अंत:करण में ही होनेवाला हैं। (२) दौर्मनस्य :- अपनी इच्छा का अनादर या भंग होने से चित्त में होता क्षोभ या चांचल्य । क्षोभ रजोगुण का धर्म होने से विक्षिप्त अंतःकरण में होता हैं। और इसलिए योग का अंतराय हैं। (३) अंगमेजयत्व :- अंगो को कपकपानेवाले अर्थात् अंगो का कंपः, यह चांचल्य भी रजोगुण से होता हैं। इसलिए विक्षेप का सहभू हैं। और इसलिए आसन की स्थिरता नहीं होती हैं। इस तरह से वह योग का अंतराय हैं। (४) श्वासप्रश्वास :- पुरुष प्रयत्न के बिना अपने आप प्राणवायु, जो बाह्यवायु को अंतर में खींच लेता हैं वह श्वास तथा जो अंतर्गत वायु को बाहर निकालता हैं, वह प्रश्वास । श्वासप्रश्वास का अनियमित होना अथवा अधिक वेग से होना वह । जो पुरुष का मन अति चंचल हैं। उसको श्वासप्रश्वास अतिवेग से होना वह, प्रवृत्तिवाले अंतःकरण में ही होता हैं। मन की गति और प्राणवायु की गति परस्पर के आधार पे रही हुई होने से जो पुरुष का मन अति चंचल हैं, उसे श्वासप्रश्वास अतिवेग से होते हैं। इसलिए ये दोनों विक्षिप्त अंतःकरण में होनेवाले होने से विक्षेप के सहभू हैं । श्वास वह रेचक प्राणवायु का तथा प्रश्वास वह पूरक का और दोनो एकसमान रुप से कुंभक के विरोधी होने से योग के अंतराय हैं। 'अभ्यास' विषय का उपसंहार करते हुए कहते हैं : - तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥१-३२॥ ( योगसूत्र) सूत्रार्थ :- कार्यसहित योगान्तराय का बाध करने के लिए कोई भी एक तत्त्व का अभ्यास करे । प्रथम ईश्वरतत्त्व का और उसके बाद पृथिव्यादि पांच तत्त्वो का तथा अन्य तत्त्वो का अभ्यास अधिकार परत्व से किया जा सकता हैं । अभ्यास का अर्थ हैं कि - चित्त की स्थिति के लिए पुनः पुनः किया जाता साधनो का अनुष्ठान। वे साधन श्रद्धावीर्यादि पहले कहे हुए हैं। परन्तु उस साधनो की त्वरित गति तथा उसके प्रतिबंधको की निवृत्ति किस तरह से करे वह उपाय बताने के लिए अवशिष्ट हैं । वह बताने के लिए प्रथम तो जो चित्त संकुचित रहता हैं तथा असूयादि दोषो से कलुषित रहता हैं वह चित्त स्थिरता को प्राप्त नहीं करता हैं । इसलिए चित्त की प्रसन्नता सिद्ध करनेवाली कुछ परिकर्मरुप (अर्थात् समाधि के बहिरंग होने से बाह्यकर्मरुप) भावना अब बताते हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy