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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट - २, योगदर्शन
तैतरियोपनिषद् में बताई हुई " उपायस्य निश्चयराहित्यं संशय :- उपाय के निश्चय का अभाव वह संशय । यह व्याख्या विशेष योग्य हैं। योग के उपाय के विषय में निश्चय का अभाव अर्थात् कैवल्य का साधन योग हैं नहि तथा ईश्वरप्रणिधानादि योग में साधन हैं या नहि, इत्यादि प्रकार का संशय योगमार्ग में कदाचित् प्रवृत्ति नहीं करने देता हैं। संशयात्मा विनश्यति - गीता के वाक्यानुसार योग का बलवान विरोधी होने से वह अंतराय हैं । विपर्यय के लक्षण के समय संशय को विपर्यय के साथ मिथ्याज्ञान में लीया था, इसलिए विपर्यय से उसका भेद बताने तथा साधक को उसका निरोध करना सरल हो, इसलिए इस स्थान पे भ्रान्तिदर्शन से संशय को पृथक् माना हैं ।
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( ४ ) प्रमाद :- योग
साधन का अनुष्ठान न करना वह ।
( ५ ) आलस्य :- अर्थात् कफ इत्यादि दोषो से शरीर का गुरुत्व तथा तमोगुण से होता चित्त का गुरुत्व। ये दोनों प्रकार के गुरुत्वरुप हेतु से "पश्चात् " करूँगा - इस प्रकार की योगसाधना के बारे में होती जो उपेक्षाबुद्धि वह आलस्य हैं।
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(६) अविरति :- अर्थात् विषय के सन्निकर्ष से होती अभिलाषा अर्थात् वैराग्यरहितत्व । उस अविरति से प्रथम तो वृत्ति विषय छोडकर अंतर्मुख होने की इच्छा नहीं होने देती हैं; कदाचित् हो तो उसमें प्रवृत्ति होती हैं। तो भी मध्य मध्य में (बीच-बीच में) विषयसंस्कारो का स्फुरण कराके चित्त को व्युत्थित करती हैं । योग की ऊँची स्थिति पर पहुँचे हुए साधक को भी यही अविरति अनेक तरह से भ्रष्ट करती हैं। इसलिए वह योगान्तराय हैं ।
(७) भ्रान्तिदर्शन :- अर्थात् उपास्य वस्तु में अन्यथा निश्चय इत्यादि विपर्यय ।
(८) अलब्धभूमिकत्व :- अर्थात् समाधि की आगे कहने में आती मधुमती इत्यादि भूमिका हैं, उसमें से कोई भी भूमिका के साधन का अनुष्ठान करने पर भी लाभ न होना वह । इस अनुसार होने से अन्तर्मुखता बनी रहती नहीं हैं, परन्तु बीच बीच में बहिर्मुखता होती हैं। चित्त एक स्थिर पद के उपर आता नहीं हैं। इसलिए वह भी योग का अंतराय हैं ।
( ९ ) अनवस्थितत्व :- अर्थात् मधुमती इत्यादि भूमिका का लाभ हो, परन्तु उसमें चित्त की स्थिति न होना अर्थात् उससे भ्रंश होना वह । श्री विद्यारण्यस्वामी इसका दूसरा अर्थ करते हैं - " कदाचिदुपासते प्रवृत्तिः कदाचिद्यागदानादौ, कदाचित् कृषिवाणिज्यादौ इत्येतादृगनवस्थितित्वात् । दोनों तरह से यह स्थिति योग के अंतरायरुप हैं। मात्र ये नौ ही योग के विरोधी नहीं हैं । परन्तु उस अंतराय के साथ दुःख इत्यादि अन्य अंतराय भी उत्त्पन्न होते हैं, वह प्रतिपादन करते हैं ।
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासाविक्षेपसहभुवः ॥ ३१ ॥ ( योगसूत्र )
सूत्रार्थ : :- दुःख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास और प्रश्वास, ये अंतराय विक्षेप के साथ होते हैं । अर्थात् विक्षिप्त चित्त में होते हैं
( १ ) दुःख :- ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् ' हैं। जिसका अनुभव होने से जो प्रतिकूल लगता हैं वह दुःख हैं। वह सदा मन को ही हैं। वह विधविध कारण से उत्पन्न होता हैं। उसके तीन विभाग हैं। (i) अध्यात्म, (ii) अधिभूत, (iii) अधिदैव ।
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