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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट - २, योगदर्शन
(वार्तिककार) । संवेग अर्थात् वैराग्य ( वाचस्पति मिश्र) । विष्णुपुराण में कहा है, "विनिष्पन्नसमाधिस्तु मुक्तिं तत्रैव जन्मनि” एकाग्रता जिसको सिद्ध हुई हैं उसे उस जन्म में मोक्ष मिलता हैं । अब किस को समाधिलाभ आसन्नतर तथा आसन्नतम है वह कहते हैं । -
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मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ १-२२ ॥ (योगसूत्र)
सूत्रार्थ ::- मृदु, मध्यम, अधिमात्र ये तीन संवेगगत तीव्रत्व के प्रकार होने से समाधिलाभ की आसन्नता तर और तमरुप विशेष होती हैं । अर्थात् आसन्नतरता और आसन्नतमता भेद होता हैं । अब समाधिलाभ आसन्नतम कब होता हैं वह बताते हैं
ईश्वरप्रणिधानाद् वा ॥१ - २३ ॥ ( योगसूत्र )
सूत्रार्थ :- अथवा तो ईश्वर के प्रणिधानरुप भक्तिविशेष से आसन्नतम समाधिलाभ होता हैं। जो साधक जीवविषयक संप्रज्ञातयोग करने लगता है उसका तो श्रद्धादि उपायो का अधिमात्र प्रमाण में तथा अतितीव्र संवेग से अनुष्ठान करना आवश्यक हैं। परन्तु जो साधक ईश्वरतत्त्वविषयक संप्रज्ञातयोग करने लगता है उसे ऐसा करना आवश्यक नहीं हैं । अर्थात् उसको वह योग ईश्वरप्रणिधानरुप साधन से आसानी से सिद्ध हो सकता हैं । वह साधक ईश्वरप्रणिधान से ईश्वर का अनुग्रह संपादन करता हैं और इसलिए सर्वशक्तिमान ईश्वर के "इस साधक को समाधिलाभ हो" इस प्रकार के सिद्धसंकल्परुप अनुग्रह से उपायो के अधिमात्र प्रमाण इत्यादि के अनुष्ठान के बिना भी समाधिलाभ होता हैं। और उससे अचिरात् मोक्ष होता हैं ।
• योग के अंतराय :
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षो
पास्तेऽन्तरायाः ॥१-३०॥
सूत्रार्थ :- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व, ये चित्त का विक्षेप करनेवाले होने से चित्तवृत्ति के निरोधरुप योग के विरोधी हैं । इसलिए योगन्तराय कहे जाते हैं। अब सब का क्रमश: स्वरूप बताते है ।
( १ ) व्याधि :- अर्थात् शरीर को धारण करते होने से धातुसंज्ञा को प्राप्त हुए कफ, वात और पित्त ये तीन का रसादिरुप आहार के परिणाम का तथा चक्षुरादिरूप करणो का वैषम्य अर्थात् विषमता । उस व्याधि से प्रथम तो वृत्ति उसमें लगी रहती हैं। इसलिए अन्त:करण स्वस्थ नहीं होता हैं। और दूसरा तो व्याधि की निवृत् के साधनो में वृत्ति व्यापृत रहती हैं। इसलिए ध्येय की विमुखता करती हैं । नानाविध वृत्ति को उपजानेवाला होने से व्याधि योग का अंतराय हैं।
( २ ) स्त्यान :- चित्त की अकर्मण्यता अर्थात् कदाचित् तमोगुण की वृद्धि से चित्त की व्यापार करने अयोग्य जो स्थिति होती हैं वह । इस चित्त की मूढावस्था तमोगुणप्रधान होने से शुद्ध, सात्त्विक चित्त में आविर्भाव पानेवाली एकाग्रतारुप समाधि की विरोधी हैं । उपरांत, उसके सद्भाव से योगानुष्ठान में प्रवृत्ति नहीं होती हैं, वह तो उसके लक्षण से स्पष्ट हैं ।
(३) संशय :- अर्थात् विरोधी उभय कोटि को आलंबन करनेवाला ज्ञान । सामान्य रुप से संशयमात्र वृत्तिरूप होने से वृत्ति के निरोधरुप योग का विरोधी हैं । तथापि इस स्थान पे श्रीविद्यारण्यस्वामी को
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