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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥१-२०॥( योगसूत्र)
सूत्रार्थ :- विदेह और प्रकृतिलय से अन्य पुरुषो को (देव, मनुष्यादि को) श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और समाधिप्रज्ञा, इस उपाय से असंप्रज्ञातयोग होता हैं। (वह दूसरा (उपाय से) असंप्रज्ञातयोग हैं।)
श्रद्धा :- चित्त का संप्रसाद अथवा प्रीति, श्रीसद्गुरु के उपदेश इत्यादि से होती तत्त्वविषयक अथवा योगविषयक प्रीति अर्थात् “योग ही मेरे लिए परम पुरुषार्थ का साधन हैं" इस ज्ञान से होती योगानुष्ठान के बारे में चित्त की प्रेमात्मक वृत्ति वह श्रद्धा हैं । वह प्रीति योग की उत्कृष्टता के श्रवण से होती हैं।
वीर्य :- वीर्य अर्थात् उत्साह ; वीर्यं प्रयत्नः धारणारुपः - धारणारुप प्रयत्न अर्थात् वीर्य । “मैं सर्वथा योग का संपादन करूँ" यह वीर्य का स्वरुप हैं। जैसे श्रद्धा का साक्षात् कारण उत्साह हैं, वैसे स्मृति का साक्षात् कारण धारणा हैं । इसलिए दोनों अर्थ योग्य हैं।
स्मृतिः- उत्साहरुप वीर्य से अनुष्ठेयरुप में योग के अंगो का स्मरण होना वह तथा धारणारुप वीर्य से ध्यानरुप ध्येय की स्मृति होना वह।
समाधि :- चित्त की एकाग्रता । वहाँ योगांग के स्मरण से समाधि का सम्यग् अनुष्ठान होता हैं और ध्यानरुप स्मृति के अभ्यास से जो विच्छेदसहित वृत्ति का प्रवाह बहता होता हैं। उसमें से विच्छेद कम होते होते अविच्छिन्न प्रवाह बहता हैं । अर्थात् एकाग्रता होती हैं।
प्रज्ञा :- उत्तरसूत्र में कही जानेवाली ऋतुम्भरा नाम की प्रज्ञा अथवा विवेकख्याति । __ प्रज्ञा के उदय से अविद्यादि क्लेशो का नाश होता हैं तथा उसके संस्कार शिथिल होते हैं। इस प्रज्ञा के विशेष अभ्यास से उस महात्मा को इस प्रज्ञा के विषय में भी अलंबुद्धिरुप परवैराग्य का उदय होता हैं । और इसलिए असंप्रज्ञातयोग होता हैं।
इस योग की सिद्धि सभी को समान समय पर नहीं होती हैं, परन्तु किसी को लम्बे समय पे सिद्ध होती हैं तो किसीको अविलंब (जल्दी) सिद्ध होती हैं । उसमें साधन का अभ्यास तथा संवेग नियामक हैं । वहाँ साधनाभ्यास के तारतम्य से योगी के तीन भेद पडते हैं । (१) मृदूपाय :- वे उपाय के अल्पत्ववाले, (२) मध्योपाय, (३) अधिमात्रोपाय (उपाय के अतिशयवाले) ये तीन विभाग श्रद्धादि साधना के तारतम्य से पडे हए हैं। उन तीनों में से प्रत्येक के तीन-तीन विभाग संवेग के तीव्रतागत तारतम्य से पड़ते हैं। इसलिए नौ प्रकार के योगी होंगे। (१) अल्पोपायवाले तथा मृदु-तीव्र संवेगवाले (२) अल्पोपाय तथा मध्यम तीव्रसंवेगवाले (३) अल्पोपाय तथा अधिमात्रसंवेगवाले (४) मध्योपायवाले तथा मृदु तीव्र संवेगवाले (५) मध्योपाय तथा मध्यमतीव्रसंवेगवाले (६) मध्योपायवाले तथा अधिमात्रसंवेगवाले (७) अधिमात्रोपायवाले तथा मृदुतीव्रसंवेगवाले (८) अधिमात्रोपायवाले तथा मध्यमतीव्रसंवेगवाले (९) अधिमात्रोपायवाले तथा अधिमात्रसंवेगवाले । - ये नौ प्रकार के योग में से कौन-से योगी को समाधिलाभ तथा उसके फलरुप असंप्रज्ञातयोग और कैवल्य समीप हैं । वह प्रतिपादन करने के लिए सूत्रकार कहते हैं।
(अधिकमात्रोपायानां) तीव्रसंवेगानामासन्नः (समाधिलाभः)॥१-२१॥ (योगसूत्र)
सूत्रार्थ :- (उपाय के अतिशयवाले) तीव्र संवेगवाले योगीयों को (समाधि तथा उसके फलरुप असंप्रज्ञातयोग और मोक्ष) आसन्न हैं । (संवेग अर्थात् उपाय के अनुष्ठान में रही हुई शीघ्रता वह हैं -
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