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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
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हैं। क्योंकि उस अवस्था में ज्ञानरुप वृत्ति का अभाव होता हैं, इसलिए कोई भी वस्तु ज्ञेयरुप से भासित नहीं होती हैं। अब वह अवस्था दो प्रकार की हैं। (१) किसी को जन्म से होती हैं। (२) किसी को साधन से होती हैं। वहाँ जो जन्म से ही होती हैं वह जीवन की पुनरावृत्ति करनेवाली होने से हेय हैं। और जो साधन से होती हैं वह कैवल्य देनेवाली होने से उपादेय हैं । वहा प्रथम हेयरुप का प्रतिपादन करते हैं -
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥१-१९॥ (योगसूत्र)
सूत्रार्थ :- विदेह तथा प्रकृतिलय पुरुषो को जन्ममात्र से जो चित्त की संस्कारशेषा अवस्था रुप असंप्रज्ञात दशा प्राप्त होती हैं वह प्रथम प्रकार का असंप्रज्ञातयोग हैं ।
जो पुरुष पृथिव्यादि भूत तथा इन्द्रिय को आत्मा रुप से मानकर उसकी ध्यानादि उपासना करते रहते हैं उसका अंत:करण उस उपासना की वासनावाला होता हैं। इसलिए वर्तमान देह का पतन होने से उस पूर्ववासना अनुसार पूर्व उपासना के बल से वे पुरुष भूत तथा इन्द्रियरुप जो जिसका उपास्य हो उसमें लीन होते हैं । उस पृथिव्यादि भूत तथा इन्द्रिय में लीन हुए पुरुष विदेह कहे जाते हैं । जो पुरुष प्रकृति या प्रधान की आरुढ उपासना करते हुए देह को छोडते हैं, वे ब्रह्मांड के बाहर रही हुई साम्यावस्थावाली प्रकृति में लीनभाव को प्राप्त करता हैं। वे पुरुष प्रकृतिलय पुरुष कहे जाते हैं।
विदेह और प्रकृतिलय पुरुष भूत-इन्द्रियादि उपास्य में लीन हुए होते हैं। इसलिए संस्कारशेष होते हैं। उनको अन्य किसी का भान नहीं होता हैं । परन्तु कैवल्यपद का अनुभव करते हो वैसे वे रहते हैं । इसलिए संस्कारशेष होते हैं । इसलिए उनकी असंप्रज्ञात दशा हैं वह सिद्ध हैं। और उस दशा की प्राप्ति के लिए स्व-स्व उपास्य में लीन होने के बाद उनको कोई प्रयत्न नहीं करना पडता हैं । इसलिए उस असंप्रज्ञातदशा का कारण जन्ममात्र ही हैं। इन पुरुषो के चित्त साधिकार होते हैं । विवेकख्यातिपर्यन्त चित्त का चेष्टित होना हैं । यह सांख्य तथा योग का सिद्धांत हैं। वे परुष जड पदार्थो में आत्मबद्धि करके रहे हए होते हैं। इसलिए उनको विवेकख्यातिरुप तत्त्वज्ञान का उदय नहीं हैं, और इसलिए उनके चित्त का अधिकार समाप्त नहीं हुआ हैं, यह स्पष्ट हैं । ऐसा होने से अपनी उपासना से प्राप्त किये हुए संस्कार से बंधे हुए विपाक को भुगतकर क्षय करते हैं तथा उसका क्षय होने से पुनः उस दशा से भ्रष्ट होते हैं। वायुपुराण में कहा हैं कि, इन्द्रियो में लीन हुआ पुरुष दस मन्वन्तर (३१,१४,४४,८०० वर्ष स्थितिकालवाला) तक लयावस्था में रहता हैं । सूक्ष्मभूत में लीन हआ १०० मन्वन्तर तक, महत्तत्व में १०,००० मन्वन्तर तक प्रकति में लीन हआ १लक्ष मन्वन्तर तक, उस उस लयावस्था में रहता हैं। अर्थात् संसार में आवृत्ति पाता हैं। यह तो नि:संदेह हैं कि वे क्रममोक्ष मार्ग में हैं। वह दिव्य तनु को धारण करता हैं । तथा यह शरीर में रहकर नानाविध भोग भुगतता हैं । उपरांत, उपाय से करके विवेक साक्षात्कार करके कैवल्यपद को प्राप्त करता हैं। इसलिए इन पुरुषो को प्राप्त होता असंप्रज्ञातयोग कैवल्य का साक्षात हेत नहीं हैं। सांख्यसत्र में कहा हैं, "न कारणलयात्कतकत्यता मग्नवदत्थानात ॥२-५८॥ सर्व दृश्य के कारणरुप प्रकृति में लय होने से कृतकृत्यता अर्थात् चित्त के साधिकारपन का अवधि होता नहीं । जैसे कि, जल इत्यादि में मग्न हुए पुरुष पुनः उत्थान को प्राप्त करता हैं। वैसे प्रकृतिलयत्व करनेवाले कर्म का क्षय होने से फिर से संसार की प्राप्ति होती हैं । इसलिए विदेह और प्रकृतिलय पुरुषो को प्राप्त होता असंप्रज्ञातयोग हेय हैं । और उपाय से होता जो असंप्रज्ञात योग हैं । उसकी प्राप्ति के लिए अवश्य प्रयत्न करना आवश्यक हैं।
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