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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट- २, योगदर्शन
यहाँ समास के दो अर्थ होंगे (१) विराम: (वृत्तिनां अभावः ) तस्य प्रत्यय: ( कारणं) तस्य अभ्यासः (तदनुष्ठान पौनः पुन्यम् ) स पूर्वः यस्मात् । विराम के प्रत्ययरुप परवैराग्य का पुनः पुनः किया जाता अनुष्ठान कारण हैं जिसका ऐसा ।
( २ ) वृत्त्याऽपि विरम्यतां इति प्रत्ययः विरामप्रत्ययः ( परवैराग्यं ज्ञानेऽपि अलंबुद्धिः ज्ञानम शाम्यतु इत्येवंरुपा ), तस्य अभ्यासः पूर्वः यस्मात् - विवेकख्याति रुप वृत्ति भी विराम ले इस प्रकार का प्रत्यय वह विराम प्रत्यय, अर्थात् ज्ञान भी शांत हो, इस प्रकार का ज्ञान के बारे में भी होता अलंबुद्धि रुप परवैराग्य वह विरामप्रत्यय, उसका अभ्यास हैं कारण जिसका ) इसलिए यह स्पष्ट होता हैं कि, इस पद से असंप्रज्ञातयोग का साधन परवैराग्य हैं, यह प्रतिपादन किया । और वह योग्य हैं, क्योंकि अपरवैराग्य केवल विषयविषयक होने से संप्रज्ञातयोग की सत्त्विक वृत्ति या तत्त्वज्ञानरुप वृत्ति उसका विषय नहीं हैं; उपरांत एकाग्रतारुप जो अभ्यास हैं वह भी निरोध योग का साक्षात् कारण नहीं हैं, क्योंकि उस निरोधयोग में वृत्तिमात्र का अभाव होता हैं । अर्थात् यह योग आलंबनवृत्ति का विरोधी हैं । और एकाग्रता में पुरुषपर्यन्त का कोई भी आलंबन होता ही हैं । इसलिए तत्त्वज्ञानपर्यन्त का सकल पदार्थो के विषय में अनात्मत्व इत्यादि दोषदर्शन से हुआ परवैराग्य ही इस योग का साक्षात् कारण होता हैं । यह वैराग्य भी निर्वस्तुक हैं । अर्थात् सकल ध्येय के प्रति की विरक्तिरुप हैं। और यह योग सकल ध्येय से शून्य हैं। इसलिए यह पद से जो कहा हैं वह योग्य ही हैं।
संस्कारशेष:- इस पद से असंप्रज्ञातयोग का स्वरुप बताया हैं। श्री विद्यारण्यस्वामी ने इस पद का जीवन्मुक्तिविवेक में इस अनुसार विवरण किया हैं । तत्र वृत्तिरहितस्य चित्तस्वरुपस्य दुर्लक्ष्यत्वात् संस्काररुपेण चित्तं शिष्यते - वहाँ वृत्ति वही चित का जीवन होने से वृत्तिरुप जीवन के अभाववाला हुआ चित्त केवल दुर्लक्ष्य हैं और इसलिए अतिसूक्ष्मरुप से रहता हैं । चित्त का यह अतिसूक्ष्मरुप से रहना वह चित्त की संस्कारशेषा अवस्था हैं I
चित्त जब वृत्तिरुप जीवन से रहित होकर अति सूक्ष्मरुप से रहता हैं अर्थात् संस्कारशेषरुप अवस्था में रहता हैं । तब वह अवस्था असंप्रज्ञात योग कही जाती हैं। वहाँ साधक को असंप्रज्ञातयोग की सिद्धि परवैराग्य के अभ्यास से होती हैं | अर्थात् संप्रज्ञातयोग की चरमभूमिका में साधक को एक तत्त्व से अवलंबन करनेवाली विवेकख्यातिरुप वृत्ति रहती हैं। वह भी वृत्ति होने से चित्त के परिणामरुप हैं और इसलिए जड हैं। तथा पुरुष से विलक्षण हैं। इत्यादि प्रकार के दोषदर्शन से वह वृत्ति के बारे मे भी उस साधक महात्मा को विरक्ति होती हैं । वह विरक्त परवैराग्य हैं। उस परवैराग्य के अभ्यास से उस वृत्ति के बारे में भी उपेक्षा होती हैं। और इसलिए वह वृत्ति भी शान्त होती हैं । और इसलिए वह चित्त की अवस्था असंप्रज्ञातयोग हैं। उसमें पूर्व पूर्व असंप्रज्ञात के बारे में तो चित्त अपने उपादानकारण में अतिसूक्ष्मरुप से रहता हैं, परन्तु उस निरोधसंस्कार की अवधि पर पुनः स्वस्वरुप से प्रकट होता हैं और चरम असंप्रज्ञात के बारे में तो चित्त अपने कारण में आत्यंतिक लय को प्राप्त करता हैं ।
इस सूत्र से चित्त की संस्कारशेषा अवस्था को असंप्रज्ञात योग कहा । वहाँ असंप्रज्ञात का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ यह हैं कि, “न किञ्चित् वेद्यं संप्रज्ञायते यस्मिन् " - जिसमें किसी भी वस्तु वेद्य (ज्ञेय) रुप से भासित नहीं होती हैं ऐसी चित्त की अवस्था । यह अर्थ सर्व वृत्ति के निरोधवाले चित्त की अवस्था में बराबर रुप से लागू पडता
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