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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन ४८५ रुप, रस इत्यादि बाह्येन्द्रिय के विषय के रागादि का क्षय होने के बाद मात्र मनरुप एक ही इन्द्रिय के मानापमानादि विषय में रहे हुए रागद्वेषादि का रागद्वेषादि के ज्ञानपूर्वक किया जाता क्षय वह एकेन्द्रियसंज्ञा भूमिका हैं। अथवा इन्द्रियों की बहिर्मुख प्रवृत्ति करानेवाले कषाय पक्व होने के बाद जो मनरुप एक इन्द्रिय के बारे में ही औत्सुक्त रहता हैं, उसे पक्व करके क्षय करना वह एकेन्द्रिय संज्ञा भूमिका हैं। ये तीन प्रकार की भूमिका वाली वैराग्य की सिद्धि होने से परिणामतः सिद्धावस्थावाली वितृष्णा होती हैं, जो वशीकारसंज्ञा वितृष्णा कही जाती है। जब विषयमात्रा स्वयं को अधीन हो और अपनी दृष्ट या आनुश्रविक कोई विषय के प्रति भी अधीनता न रहे तब ऐसी वितृष्णा को वशीकारसंज्ञा वैराग्य कहा जाता हैं। (विरक्तिर्दोषदर्शनात्, वैराग्याद्दोषदर्शनम्) इस प्रकार का वशीकारसंज्ञक वैतृष्णा वही योग के साधनरुप वैराग्य हैं। असंप्रज्ञातयोग का जो हेतु हैं, ऐसा स्मृति में कहा हुआ है। अब परवैराग्य का प्रतिपादन करते हैं। परवैराग्य का स्वरुप : तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥१-१६॥ (योगसूत्र) सूत्रार्थ :- पुरुष के साक्षात्कार से सकल गुण के बारे में उत्पन्न होता वैतृष्ण वह श्रेष्ठ या परवैराग्य हैं । जो योगी को (विवेकख्याति से ) विवेकसाक्षात्कार होता हैं उसे अभ्यास से उस विवेकख्यातिरुप वृत्ति के बारे में भी अलम् बुद्धि अथवा उपेक्षाबुद्धिरुप वैराग्य होता हैं । वह वैराग्य परवैराग्य हैं । अपरवैराग्य और परवैराग्य में यह भेद है कि अपरवैराग्य दृष्ट और आनुश्रविक विषयो को ही विषय करनेवाला हैं। अर्थात् विवेकख्याति से अविद्यादि क्लेशो का नाश होता हैं । इसलिए उस विवेकख्याति की सिद्धि के लिए अन्य सर्व विषय दोषग्रस्त हैं। इस प्रकार का विवेक करके उस विषयो में उपेक्षा बुद्धि उस अपरवैराग्य में की जाती हैं। उस अपरवैराग्य में तो विवेकख्याति उपादेयरुप में ली हुई होती हैं। क्योंकि वह ख्याति उस वैराग्य के फलरुप से हैं इस प्रकार जब दोषदर्शन से वैराग्य की सिद्धि होकर विवेकख्याति का उदय होता हैं तब उस योगी महात्मा को विवेकख्याति में भी दोषदर्शन होता हैं । विवेकख्याति वह भी सात्त्विक चित्त की एक तरह की (एकाग्रता की) वृत्ति है। यह वृत्ति भी स्वस्वरुप से भिन्न हैं। स्वयं तो कूटस्थ नित्य है। निष्क्रिय तथा केवल निर्लेप है और इस विवेकख्याति रुप सत्त्वगुणात्मिका वृत्ति तो सत्त्वगुण का कार्य होने से विनाशी हैं, परिणामी हैं, विषय के साथ संबंध करने के लिए क्रियावाली हैं तथा विषय को संग करनेवाली होने से निर्लेप नहीं हैं। इस तरह से भिन्न धर्मो के आश्रयरुप होने से वह विवेकख्यातिरुप चित्तवृत्ति अपने स्वरुप से विपरीत हैं और इसलिए त्याज्य • हैं । इस प्रकार से उस योगी को विवेकख्याति का बहोत अनुभव होने के बाद लगता हैं । इस तरह से विवेकख्याति में उत्पन्न होती अलंबुद्धि वह परवैराग्य हैं। ___ पातंजलभाष्य में भी -दृष्टानुश्राविकविषयदोषदर्शी विरक्तः पुरुषदर्शनाभ्यासात् तच्छुद्धिप्रविवेकाप्यायितबुद्धिर्गुणेभ्यो व्यक्ताव्यक्तधर्मकेभ्यो विरक्त इति । तद् रुपं वैराग्यं ॥ __ अपर वैराग्य सत्त्व के समुद्रेक से तमोगुणरुप मल जिसके धुल गये हैं परन्तु रजोलेश जिसमें हैं, ऐसे चित्त की आवश्यकता रखता हैं । और इसलिए तौष्टिक पुरुषो में भी अपरवैराग्य हो सकता हैं । शास्त्र में भी वैराग्यात्प्रकृतिलयः इत्यादि वचन से अपरवैराग्य के फलरुप से प्रकृतिलयत्व का कथन किया हैं। परवैराग्य तो ज्ञानप्रसादमात्र हैं और इसलिए शुद्धसात्त्विक चित्त की आशा रखता हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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