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________________ ४८६ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन परवैराग्य का फल :- परवैराग्य के उदय से पुरुष को ऐसा स्पष्ट लगता हैं कि, मेरे अविद्यादि क्लेश सर्व क्षीण हो गये हैं। तथा संसारचक्र में भ्रमण करानेवाले धर्माधर्म का समूह मैंने मूलसहित उच्छेद किया हैं। इसलिए मुजे अब कुछ प्राप्तव्य या कर्तव्य बाकी नहीं रहा हैं। इसलिए 'दुःखात्मिका विवेकख्याति भी शमो'... इस प्रकार की विवेकख्याति के बारे में होती अलंबुद्धिरुप इस परवैराग्य के उदय से सर्व वृत्तियों का निरोध हो जाता हैं। अर्थात् परवैराग्य के उदय से असंप्रज्ञात समाधि का लाभ होता हैं और उसका अवलंबन करके कैवल्य की प्राप्ति होती हैं। यमनियमादि, अपरवैराग्य और संप्रज्ञातयोग और इसलिए क्षय न हुए प्रारब्ध कर्मो का भी इस वैराग्य के उदय से प्राप्त होते असंप्रज्ञातयोग से क्षय होता हैं। • संप्रज्ञातयोग का स्वरुप :- वितर्कविचारानन्दास्मिताऽनुगमात् संप्रज्ञातः ॥१-१७॥(योगसूत्र) सूत्रार्थ :- वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता इन चार से युक्त हुए और इसलिए सवितर्क, सविचार, सानंद और सास्मित, ये चार संज्ञा से शास्त्र में व्यवहरित होते चार प्रकार के समाधिरुप संप्रज्ञातयोग क्रमशः सिद्ध होते हैं । ये चार योग अभ्यास और अपरवैराग्य की सिद्धि करने से प्राप्त होते हैं। (१) सवितर्क समाधि :- जैसे धनुर्विद्या का आरंभ करनेवाला साधक प्रथम स्थूल, बाद में उससे सूक्ष्म और बाद में उससे सूक्ष्म और बाद में उससे भी सूक्ष्म, ऐसे अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ को वेध ने का सामर्थ्य सिद्ध करता हैं। वैसे योग का साधक भी स्थूल पदार्थ का ध्येय लेता है और उसको अन्य विषय के परिहारपूर्वक चित्त में पुनः पुनः प्रवेश करनेरुप भावना को करने के अभ्यासवाला होता हैं । तथा उसकी सिद्धि अनंतर सूक्ष्म विषय को ध्येय लेती हैं। ऐसा करते करते गंतव्य स्थान प्रति जाते हैं। योगवार्तिक में भी "योगारंभे मूर्तहरिममूर्तमथ चिन्तयेत् । स्थूले विनिर्जितं चित्तं ततः सूक्ष्मे शनैर्नयेत्''॥ इत्यादि वचन द्वारा इसी बात को कहा हैं। प्रथम जो स्थूल विषय को ध्येय लेते हैं और उस विषय को पुनः पुनः अन्य विषयो के परिहारपूर्वक चित्त में प्रवेश कराने के अभ्यासवाला होता हैं । इस अभ्यास की सिद्धि होने से उस स्थूल विषय में उस साधक का चित्त एकाग्र होता हैं। उस स्थूलविषय में एकाग्रतारुप समाधि को सवितर्क समाधि कहते हैं। सवितर्क अर्थात् वितर्क से युक्त अथवा वितर्क जिसके फलरुप हैं वह । लौकिक प्रत्यक्ष से नहि मालूम होते. अनमान भी न किये हए. आगम प्रमाण से भी ज्ञान न होते. ऐसे ध्येयगत अशेष विशेषो का साक्षात्कार अर्थात् उस विशेषो का हस्तामलकवत् अपरोक्ष ज्ञान वह विशेषेण तर्कणं अवधारणम् - इस व्युत्पत्ति से वितर्क हैं । यह वितर्क जिसके फलरुप से हैं वह सवितर्क समाधि या सवितर्क संप्रज्ञातयोग हैं। इसलिए साधक ने प्रथम भूमिका में जो स्थूल पदार्थ को ध्येयरुप से लिया होता हैं और ध्येयगत अशेष का साक्षात्कार जो समाधि या संप्रज्ञातयोग से सिद्ध होता हैं, उसे सवितर्क समाधि कहते हैं। इस सवितर्क समाधि में स्थूल विषय हैं, इतना ही नहीं, परन्तु यह समाधि ग्राह्यविषयगोचर ही होती हैं। इसलिए उसके विषयरुप से केवल कार्यरुप ग्राह्य तत्त्वो का ही ग्रहण करना होता हैं । अर्थात् विश्वभेदरुप जगत् के घटादि स्थावर-जंगम पदार्थ तथा पृथिव्यादि पाँच महाभूत इत्यादि का ग्रहण करना होता हैं । इसलिए उस पदार्थो के विषय में होती पूर्ण एकाग्रता वह सवितर्क समाधि हैं। (२) सविचार समाधि :- सवितर्क समाधि की सिद्धि होने के बाद वह साधक सूक्ष्म पदार्थ को ध्येय लेता हैं अर्थात् सवितर्क समाधि से जो स्थूल विषय का उस साधक ने साक्षात्कार किया हैं उस स्थूल विषय में कारणरुप से अनुगत हुए होने से सूक्ष्म संज्ञा को प्राप्त हुए अणु या तन्मात्रा से लेकर प्रधान पर्यन्त के सर्व तत्त्वो को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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