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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट - २, योगदर्शन श्रुति भी कहती है, "त्रिषु धामसु यद्भोग्यं भोक्ता भोगश्च यद्भवेत्" जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति, ये तीन अवस्था में जो भोग्य, भोक्ता और भोग का कथन करते हैं। वहाँ वृत्तिदर्शन यह भोग शब्द का अर्थ है और इस वृत्ति का जो विषय हो वह भोग्य हैं। इसलिए वह श्रुति सुषुप्ति के विषय में वृत्ति तथा उसका विषय है ऐसा बोधन करती हैं। उपरांत, श्रुति में सुषुप्ति के भोग भुगतनेवाले को (वृत्ति देखनेवाले को) अंत: संज्ञः नाम दिया हैं। तो इससे भी सुषुप्ति में भोग्यरुप वृत्ति को श्रुति अवश्य अंगीकार करती है, इसलिए आगम प्रमाण से भी निद्रा यह वृत्ति हैं, यह सिद्ध होता हैं। इसलिए निद्रा वह केवल ज्ञान का अभाव नहीं हैं, परन्तु एक तरह की तामसवृत्ति हैं। इसलिए योग की साक्षात् विरोधी है । इसलिए अवश्य निरोध करना चाहिए । (५) स्मृति :- अनुभूतविषयाऽसंप्रमोषः स्मृतिः ॥१- ११ ॥ ( योगसूत्र ) सूत्रार्थ :- प्रमाणादि से अनुभव किये गये विषय से अधिक का अग्रहण अर्थात् उतने का ही ग्रहण वह स्मृति । अर्थात् जो वृत्ति अनुभूत ग्राह्य विषय का तथा ग्राह्याकार वृत्ति का ही मात्र ग्रहण करती हैं, वह वृत्ति स्मृति हैं । उसका स्वरुप "वह देवदत", "वह गंगा" इत्यादि प्रकार का हैं । ४८३ लक्षण परीक्षा :- स्मृति को वृत्ति कहने से स्मृति के कारणरुप तथा अनुभव से पडे हुए होने से अनुभव के कार्यरुप संस्कार की व्यावृत्ति होती हैं । उपरांत सोऽयं देवदत्तः- वह यह देवदत - इस प्रकार का ज्ञान, जिसको प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। उसकी भी इस लक्षण से व्यावृत्ति की जाती हैं। क्योंकि प्रत्यभिज्ञा में स देवदत्त:वह देवदत्त - इस अंश में वह देशकालादिविशिष्ट देवदत्त अनुभव में आया होने से स्मृति हैं । परंतु 'अयम्' यहइस अंश में अनुभव हैं। इसलिए प्रत्यभिज्ञा में स्मृति और अनुभव दोनों का मिश्रण करनेवाला होने से उस प्रत्यभिज्ञा का स्मृति में अन्तर्भाव नहीं होता हैं । - स्मृति का शास्त्रीय लक्षण "संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः- अनुभव से पडे हुए संस्कार से होनेवाला ज्ञान यह स्मृति हैं । " निरोध उपाय : निरोध का उपाय बताते हुए कहते हैं । - अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१-१२ ॥ ( योगसूत्र ) सूत्रार्थ :- ये पांचो प्रकार की वृत्तियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से होता हैं । वैराग्य से संसारसागर की ओर बहते प्रवाह को रोका जाता है और अभ्यास से उस प्रवाह को कैवल्यसागर में लीन किया जाता हैं। भगवद्गीता में दोनों का समुच्चय किया गया हैं। असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ श्री कपिल ने भी कहा हैं कि- वैराग्यादभ्यासाच्च ॥ ( अ-२, सू-३६) Jain Education International • अभ्यास किसे कहा जाता हैं ? तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥१- १३ ॥ ( योगसूत्र ) सूत्रार्थ :- वहाँ (अर्थात् अभ्यास और वैराग्य ये दोनो के मध्य में) चित्त की प्रशान्तवाहिता स्थिति के साधनो का अनुष्ठान यह अभ्यास हैं । चित्त की राजस् और तामस् वृत्तिरहित जो अवस्था, जिसको प्रशान्तवाहिता कहते हैं, वह स्थिति । अभ्यास का फल :- अभ्यास से अनादिकाल के वासनारुप संस्कारो में दाह होता हैं। और चित्त में जो For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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