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________________ ४८२ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन यह विकल्पवृत्ति क्वचित् भेद में अभेद का और अभेद में भेद का आरोप करती हैं। इत्यादि अनेक प्रकार से प्रवर्तित होती हैं । उदा. (१) "पुरुष का चैतन्य" यहाँ दो पदो का 'देवदत्त की गाय'' इन पदो की तरह विशेषण-विशेष्यभाव संबंध प्रतीत होता हैं । परन्तु उस संबंध में जहाँ भेद हो वहाँ सत्य सिद्ध होता हैं। इस स्थान पे पुरुष और चैतन्य एक होने से वह संबंध मिथ्या हैं। फिर भी ऐसा जाननेवाला विवेकी ऐसा व्यवहार करता हैं (इस अभेद में भेद का आरोप किया) होने से वह ज्ञान विकल्परुप हैं। (२) "पुरुष निष्क्रिय हैं" इस वाक्य का अर्थ ऐसा हैं कि, पुरुष क्रिया के अभाववाला हैं। इस वाक्य में पुरुष आधाररुप से और क्रिया का अभाव आधेयरुप से प्रतीत होता हैं । इसलए इस वाक्य से दोनों के बीच का आधार-आधेयभावसंबंध प्रतीत होता हैं। जब दो संबंधी भिन्न-भिन्न वस्तु हो, तब वह आधार-आधेयभावसंबंध सत्य माना जाता हैं। यहाँ दोनो भिन्न नहीं होने से आधारआधेयसंबंध मिथ्या हैं । फिर भी विवेकी पुरुष उस अनुसार से व्यवहार करते हैं । इसलिए मिथ्याज्ञान विकल्परुप हैं (३) “पुरुष अनुत्पत्तिरुप धर्मवाला है" इस वाक्य में केवल उत्पत्ति का अभाव वास्तविक हैं। परन्तु अभाव पुरुष के साथ विशेषता को प्राप्त करनेवाला कोई वस्तुरुप धर्म नहीं हैं। फिर भी इस वाक्य से उस प्रकार का भी ज्ञान विवेकी को भी होता हैं। तथा विवेकी पुरुष बाधज्ञान के बाद भी ऐसा प्रयोग करते हैं । इसलिए विकल्पवृत्ति हैं (४)"वृक्ष के उपर शाखा हैं" यह भी विकल्पवृत्ति हैं । उपरांत आकाशकुसुम, शशशृंग (खरगोश का सिंग), वंध्या (बांस) का पुत्र, इत्यादि शब्दो के श्रवण से जो कोई विषयाकार वृत्ति होती हैं, वह मिथ्याज्ञानरुप विकल्पवृत्ति हैं। (४) निद्रा :- अभावप्रत्ययालम्बना वृतिनिद्रा : ॥१-१०॥ ( योगसूत्र ) सूत्रार्थ :- जाग्रत् और स्वप्नवृत्ति के अभाव के कारणरुप तमस् को विषय करनेवाली वृत्तिविशेष वह निद्रा । (प्रत्यय = कारण, हेतु, ज्ञान) प्रश्न :- वृत्तयः पंचतय्यः... इस सूत्र से वृत्ति की अनुवृत्ति चली आती होने पर भी इस सूत्र में फिर से वृत्ति पद क्यों इस्तेमाल किया हैं ? उत्तर :- बहोत से लोग निद्रा को ज्ञानाभावो निद्रा - ज्ञान का अभाव वह निद्रा, यह लक्षण करके अभावरुप मानते हैं । परन्तु ऐसा मानना योग्य नहीं हैं । इस अर्थ का प्रतिपादन करने के लिए यह पद रखा हैं । इसलिए यह वृत्ति पद साभिप्राय हैं अर्थात् केवल अनुवाद मात्र नहीं हैं परन्तु विधान करनेवाला हैं। प्रश्न :- निद्रा वृत्ति तमस् का ही विषय करनेवाली क्यों हैं ? उत्तर :- जाग्रत् या स्वप्न में विविध विषयो का ज्ञान होता हैं। इसलिए उस अवस्था में सत्त्व और रजस् का प्राधान्य होता हैं। सुषुप्ति में जाग्रत् की और स्वप्न की वृत्तियों का अभाव हैं । वह अभाव सत्त्वगुण से तो होगा ही नहीं, क्योंकि सत्त्वगुण का स्वभाव प्रकाश करना इत्यादि हैं, परन्तु आच्छादन करने का नहीं हैं । उपरांत रजोगुण से अंतःकरण या चित्त चंचल होकर विविध विषयो की ओर दौड़ता हैं । अर्थात् विविध वृत्तिरुप से परिणाम पाता हैं। इसलिए रजोगुण से भी उसका स्वभाव आच्छादन करने का नहि होने से जाग्रत्-स्वप्नप्रवृत्तियों का अभाव हो नहीं सकता । उस अभाव का कारण तमोगुण हैं । तमोगुण आच्छादन करने के स्वभाववाला हैं और उसमें गौरवधर्म हैं । इसलिए उस अभाव का कारण तमोगुण ही हो सकता हैं, तमोगुण को विषय करनेवाली वृत्ति को निद्रा कहा जाता हैं। यद्यपि निद्रा यह तामसी वृत्ति हैं तथापि उसके सात्त्विक, राजस और तामस, ये तीन विभाग इस प्रकार किये जाते हैं । निद्रा यह वृत्ति हैं । वह तीन प्रकार की हैं। सात्त्विक निद्रा, राजसी निद्रा, तामसी निद्रा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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