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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन ४८१ (२) विपर्यय :- विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रुपप्रतिष्ठम् ॥१-८॥ (योगसूत्र) सूत्रार्थ :- अपने विषय में प्रतिष्ठा से रहित ऐसा जो मिथ्याज्ञान वह विपर्यय । मिथ्याज्ञान :- स्वविषये स्वजन्यव्यवहारलोपिसर्वसंमतबाधवत्त्वम् । -"जो यथार्थ ज्ञान के सर्वसंमत बाध से (मिथ्या है, इस ज्ञान से) स्वविषयक व्यवहार का लोप है वह मिथ्याज्ञान।" जैसे शुक्ति में रजत का ज्ञान मिथ्याज्ञान है। क्योंकि वह मिथ्याज्ञान होता हैं, तब शुक्ति के बारे में "यह रजत है' ऐसा व्यवहार होता हैं। जब यह ज्ञान (शुक्ति में शुक्ति का ज्ञान होने से) बाधित होता है तब "यह रजत हैं। इस प्रकार के व्यवहार का भी लोप होता हैं। "ज्ञान अपने विषय में प्रतिष्ठा से रहित है। जो ज्ञान का बाध होने से तविषयक व्यवहार का लोप होता हैं। वह ज्ञान विपर्यय हैं।" इस विपर्यय में भ्रम और संशय ये दो का संग्रह करना हैं। (जैसे कि, कोने में रहा हुआ "यह स्थाणु है या पुरुष?" - यह संशय होता है, वहाँ "यह स्थाणु है" इस प्रकार की प्रमाणवृत्ति से संशय ज्ञान बाधित होता है। अपने विषय में प्रतिष्ठा से रहित है और ज्ञान का बाध होने से वह संशय पुनः उस समय नहीं होता हैं ।) इसलिए यह लक्षण अव्याप्ति से रहित है और असंभव से तो रहित ही हैं। अतिव्याप्ति से भी रहित है। क्योंकि "अतद्पप्रतिष्ठम्" इस पद से प्रमाणवृत्ति की व्यावृत्ति की जाती हैं। और 'मिथ्याज्ञान' इस पद से विकल्प वृत्ति की व्यावृत्ति की जाती जाती हैं। क्योंकि उसका भी बाध होता हैं। तथापि विकल्प का बाध होने के बाद तद्विषयक व्यवहार चला करता हैं, इसका लोप नहीं होता हैं । इस लक्षण से निद्रा और स्मृति तो व्यावृत्त ही हैं। इसलिए लक्षण सर्वथा दूषित हैं। (३) विकल्प :- शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥१-९॥ (योगसूत्र) सूत्रार्थ :- शब्द और शब्दज्ञान को सर्वदा उत्पन्न करनेवाला अथवा शब्द के श्रवण से होनेवाला जो निर्वस्तुकज्ञान वह विकल्पवृत्ति हैं। 'शब्दज्ञानानुपाती' ये समस्त पद के दो अर्थ होते हैं । (१) शब्दश्च ज्ञानं च शब्दज्ञाने, ते अनुपाति (उत्तरकाले अवश्यंभाविनी) यस्य सः- शब्द और शब्दश्रवण से होता ज्ञान ये दोनों जिससे सर्वदा हुआ करता है वह। अर्थात् जो मिथ्याज्ञान से बाधकाल में तथा अबाधकाल में ऐसे सर्वदा शब्दप्रयोग तथा उससे होता मिथ्याज्ञान हुआ करता हैं वह । (२) शब्दजनितज्ञानं शब्दज्ञानं, तदनुपतितुं शीलं यस्य सः- अर्थात् शब्द का जो श्रवण वह शब्दज्ञान । उस शब्द श्रवण से निरंतर होने पन जिसको है वह मिथ्याज्ञानरुपी वृत्ति । इस तरह से विकल्प (वृत्ति) दो प्रकार के धर्मवाली हैं । (१) वह (बाधकाल में भी विवेकी सुद्धां को) शब्दज्ञान करानेवाली है। अथवा तो शब्दश्रवण से उत्पन्न होनेवाली हैं। (२) वह मिथ्याज्ञानरुप हैं अर्थात् उसका बाध होता है। लक्षण परीक्षा :- लक्षण में दोनों धर्म रखने आवश्यक हैं। यदि केवल प्रथम धर्म रखे तो उस लक्षण की प्रमाण में अतिव्याप्ति आयेगी । प्रमाणरुप वृत्ति से भी शब्दव्यवहार तथा तज्जन्यज्ञान होता हैं । उपरांत आप्तवाक्यरुप शब्दसमूह के श्रवण से आगमप्रमाणरुप वृत्ति उत्पन्न होती हैं। इसलिए यदि मात्र शब्दज्ञानानुपाती विकल्पः ऐसा कहे तो यथार्थ विषय करनेवाली प्रमाणवृत्ति भी विकल्प में आ जायेगी। अब केवल द्वितीय धर्म ही रखे तो विकल्प में विपर्यय भी आ जायेगा । जब जो मिथ्याज्ञान रुप होते हैं वे सर्व विकल्प होते हैं। ऐसा कहा तब विपर्यय भी मिथ्याज्ञानरुप होने से विकल्प ही बनेगा। इसलिए प्रथमधर्म आवश्यक हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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