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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
उसमें जो पुरुष के भोग्य होने की योग्यता जो बुद्धिसत्त्व में पूर्वकाल से सिद्ध होती है वही बुद्धिसत्त्व वर्तमान तथा भावी काल में वही पुरुष का भोग्य होकर रहता हैं । यह स्वस्वामिभाव संबंध अविद्यारुप अनादि पदार्थ का कार्य हैं । इसलिए अनादि है। इसलिए कोई भी काल ऐसा नहीं हैं कि जिसकी पूर्व के काल में वह बुद्धिसत्त्व अमुक पुरुष के साथ उक्त संबंध से संबद्ध नहि हुआ होगा। इसलिए "प्रथम किस तरह से अमुक बुद्धिसत्त्व अमुक पुरुष के साथ संबंध से संबद्ध हुआ" यह प्रश्न का अवकाश नहीं हैं।
पाँच प्रकार की वृत्तियाँ :- वृतयः पंचतय्यः क्लिष्टाऽक्लिष्टाः । ॥१-५॥ (योगसूत्र)
सूत्रार्थ :- निरोध करने की क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्ति सब मिलकर पांच प्रकार की हैं । जो प्रमाणादिव्यापार से चित्त जीवित रहता है, उस चित्त के परिणामरुप द्रव्यात्मक पदार्थ वृत्ति हैं।
एक पक्ष से देखने से वृत्तिमात्र त्रिगुणात्मक होने से बंधन के हेतुरुप हैं । और इसलिए क्लिष्ट हैं । तथापि कुछ वृतियाँ केवल दुःखोत्पादक होती हैं और कुछ दुःखोत्पाद नहीं होती हैं। इसलिए प्रथम प्रकार की वृत्तियाँ क्लिष्ट मानी जाती हैं और द्वितीय प्रकार की अक्लिष्ट मानी जाती हैं । वहाँ विषयाकार जो वृत्तियाँ हैं, वह क्लिष्ट हैं । क्योंकि ये वृत्तियाँ धर्माधर्म की वासना के समूहरुप कर्माशय का बीज हैं । विषयाकार वृत्ति से तृष्णा उत्पन्न होती हैं । तृष्णा को शांत करने का यत्न करता हैं । उसमें अन्य को पीडा या अनुग्रहादि कर्म रचता हैं । उस असंख्य कर्मो से धर्माधर्म के असंख्य संस्कार बंधते हैं, उस संस्कार से जन्ममरणादि संसार की परंपरा चलती हैं। इस तरह से विषयाकार वृत्ति से दुःखधारा सतत चला करती हैं। इसलिए विषयाकार जो वृत्तियाँ है, वह क्लिष्ट हैं। उससे अतिरिक्त वृत्तियाँ जिससे दुःखधारा की उत्पत्ति नहीं होती हैं, वह अक्लिष्ट वृत्ति हैं। और वह वृत्ति प्रधानरुप से तो विवेकख्यातिरुप वृत्ति हैं, क्योंकि यह वृत्ति दुःख को उत्पन्न नहीं करती हैं, सत्त्वादि तीन गुणो के अधिकार को बढाती नहीं हैं; परन्तु अविद्या तथा तन्मूलक क्लेश, तन्मूलक कर्म, कर्माशय इत्यादि का नाश करके दुःख का अत्यन्त उच्छेद करनेवाली होने से तीन गुण के अधिकार की विरोधी हैं । इसलिए विवेकख्याति रुप वृत्ति को प्राप्त करानेवाला जो अभ्यास वैराग्यादिरुप वृत्तियाँ हैं । वे भी सभी अक्लिष्ट हैं।
पाँच वृत्तियाँ : प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय : ॥१-६॥ (योगसूत्र)
(१) प्रमाण, (२) विपर्यय, (३) विकल्प, (४) निद्रा, (५) स्मृति, ये पांच प्रकार की वृत्तियाँ हैं। ये पांच प्रकार की वृत्तियों में प्रथम तीन जाग्रत् अवस्था की हैं। यही वृत्तियाँ फल देने के लिए तैयार हुए सूक्ष्म संस्कारो से स्फुरित होती हैं, तब स्वप्नावस्था होती हैं। इसलिए स्वप्न की भी ये तीन वृत्तियाँ हैं। लोगो में जाग्रत्, स्वप्न
और सुषुप्ति, इस क्रम में ये तीन अवस्था का व्यवहार किया जाता हैं । इसलिए उसका सूत्रकार ने प्रथम निर्देश किया हैं। इन वृत्तियों के अभाव के कारणरुप तमस् को विषय करनेवाली निद्रावृत्ति हैं । इसलिए निद्रावृत्ति के ज्ञान के पहले उसका ज्ञान होना आवश्यक हैं। क्योंकि प्रतियोगी का ज्ञान हो तब ही उसके अभाव का ज्ञान होता हैं। इसलिए निद्रा के प्रतिपादन से पहले तीन का प्रतिपादन किया हैं।
(१) प्रमाण :- प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥१-७॥ (योगसूत्र )
सूत्रार्थ :- प्रमाणवृत्ति प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम, ये तीन प्रकार की हैं। तीन प्रमाण का स्वरुपभेदादि का आख्यान सांख्यदर्शन की तरह ही जानना । सांख्यदर्शन के निरुपण में इसके विषय में पर्याप्त विचारणा की है, इसलिए पुनः इसका प्रतिपादन करते नहीं है।
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