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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
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(लक्षण :-- असाधारण धर्म, असाधारण = लक्ष्य को सजातीय तथा विजातीय पदार्थमात्र से व्यावृत्त करनेवाला ) जैसे कि, मनुष्य का मनुष्यत्व धर्म चेतन पदार्थरुप अन्य प्राणी जो मनुष्यो के सजातीय कहे जाते हैं, उससे तथा जड पदार्थरुप घटादिपदार्थ जो जड होने से मनुष्य से विजातीय कहे जाते हैं, उससे अपने आश्रयरुप लक्ष्य मनुष्य को व्यावृत्त करनेवाला होने से लक्ष्यनिष्ठ असाधारण धर्म हैं।
चित्तवृत्ति :
सत्त्व, रजस् और तमस् ये तीन द्रव्यों का बना हुआ द्रव्यविशेष चित्त कहा जाता हैं । चित्त को बुद्धिसत्त्व, अंतःकरण इत्यादि संज्ञा भी दी जाती हैं । यद्यपि चित्त तीन द्रव्यो का बना हुआ हैं, तथापि उसका मुख्य कारण प्रधानरुप से रहा हुआ सत्त्व हैं। इसलिए उसको बुद्धिसत्त्व कहने में कोई दोष नहीं हैं । इस चित्त को सजीव बनानेवाले विविध कारणो के कारण होते उसके परिणामविशेष को वृत्ति कहा जाता हैं। जैसे सूर्य में से किरने निकलती हैं वे सूर्य के परिणामविशेषरुप ही हैं। वैसे विविध द्रव्य से बने हुए चित्त के किरणसदृश जो परिणाम वह वृत्ति कहा जाता हैं । (वृत्ति का वर्णन आगे आयेगा।) उस चित्त की वृत्तियों का निरोध वह योग कहा जाता हैं।
चित्त की पांच अवस्थायें :- (१) क्षिप्तावस्था, (२) मूढावस्था, (३) विक्षिप्तावस्था, (४) एकाग्रावस्था, (५) निरुद्धावस्था । इस अवस्था के भेद से चित्त क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ये पांच प्रकार के हो सकते हैं।
प्रश्न :- चित्त तो सर्व एक ही प्रकार के कहे जाते हैं । उसकी पांच अवस्था अथवा पांच प्रकार किस तरह से हो सकते हैं ? उत्तर :- चित्त में प्रकाश अथवा तत्त्वज्ञानरुप प्रख्या, प्रसाद, लाघव इत्यादि गुण दिखाई देते हैं, उपरांत कर्मरुप प्रवृत्ति, परिताप, शोक इत्यादि गुण तथा प्रकाश और प्रवृत्ति के प्रतिबंधरुप स्थिति, गौरव, आवरण इत्यादि गुण दिखाई देते हैं। वहाँ प्रख्या, प्रसादादि गुण सत्त्वगुण के हैं। प्रवृत्ति, पारितापादि धर्म रजोगुण के हैं। और स्थिति, गौरवादि धर्म तमोगुण के हैं।
(१) क्षिप्त चित्त :- यद्यपि चित्त प्रधानरुप से सत्त्वगुण का कार्य होने से प्रख्या या प्रकाशधर्मवाला हैं। तथापि जब प्रधानरुप से वह रजोगुण और तमोगुण से संसृष्ट होता हैं तब अणिमादि ऐश्वर्य तथा शब्दादि पांच विशेष को ही प्रिय मानता हैं। और इसलिए संनिहित तथा व्यवहित विषयो की ओर ही रजोगुण से प्रेरित रहता हैं । ऐसा प्रकार का रजोगुण के विषय में ही वृत्तिवाला चित्त क्षिप्त कहा जाता हैं । साधारणतः दैत्य, दानवों का चित्त सदा ऐसा होता हैं।
(२) मूढ :- जब तमोगुण के समुद्रेक से कृत्याकृत्य को नहीं जाननेवाला होने से चित्तसत्त्व अधर्म, अज्ञान, अविरति और अनैश्वर्यवाला होकर रहता हैं । तब उसे मूढ कहा जाता हैं । साधारणतः राक्षस, पिशाच, इत्यादि का चित्त सदा ऐसा होता हैं।
(३) विक्षिप्त चित्त :- सत्त्वगुण के आधिक्य से जिसका मोहरुप आवरण चला गया हैं। और इसलिए जो सर्व विषय के बारे में वृत्तिवाला हुआ हैं ऐसा तथा रजोगुण के लेश से संपृक्त होने से जो धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यवाला होता हैं, वह चित्तसत्त्व विक्षिप्त कहा जाता हैं । यथार्थ रुप से इस प्रकार का चित्त श्री हिरण्यगर्भ भगवान् इत्यादि देवताओं का प्रायशः सदा होता हैं ।
(४) एकाग्र :- शुद्ध, सात्विक होने से जब चित्तसत्त्व एक ही विषय में बहोत लम्बे काल पर्यन्त, निर्वात स्थान पे रहे हुए दीपक की तरह, अचंचल होकर रहता हैं। तब वह एकाग्र कहा जाता हैं । अर्थात् विक्षेप
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