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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
सूत्रार्थ :- सर्वज्ञपन का बीज जो अतिशयवाला ज्ञान वह ईश्वर में निरतिशय हैं। अर्थात् ईश्वर में निरतिशय यानी कि उससे उत्कृष्ट नहीं ऐसा । यहाँ सूत्र में कहा हैं कि सर्वज्ञता का ज्ञापक हेतु जो सातिशय जातीय ज्ञान वह ईश्वर में निरतिशय हैं। अर्थात् अमर्याद स्वस्थान को प्राप्त हैं।
वहाँ सातिशयजातीयज्ञान सर्वज्ञता का इस अनुसार से ज्ञापन करता हैं।-ज्ञान सातिशय होने से किसी स्थान पे भी निरतिशय होना चाहिए। क्योंकि लोक में हम देखते हैं कि, जो जो गुण सातिशय होता हैं - जैसे कि परिमाण, वह क्वचित् भी निरतिशय होता हैं। परिमाण का जो अणुत्व-महत्वरुप सातिशय देखते है, वह पुरुष में काष्ठाप्राप्ति हैं। क्योंकि पुरुष विभु होने से निरतिशय महत्त्ववाला हैं। उसी अनुसार से ज्ञान भी सातिशय होने से क्वचित् काष्ठा को प्राप्त होना चाहिए । ज्ञान सातिशय है वह हम जानते हैं । बालक से बड़े पुरुष में ज्यादा होता हैं। उससे अधिक योगी में होता हैं। और उससे अधिक उत्तम साधनावाले योगी को होता हैं । इस तरह से ज्ञान सातिशय सिद्ध होता हैं। इसलिए परिमाण की तरह क्वचित् निरतिशयवाला होना चाहिए । जहाँ ज्ञान निरतिशय होता है, वहाँ सर्वज्ञत्व है यह स्पष्ट हैं । इसलिए सातिशयजातीय ज्ञान से सर्वज्ञ पदार्थ की सिद्धि अनुमान से हो सकती हैं।
ईश्वरसद्भाव में उपयोगी ऐसा अनुमान बताया। अब जगत के स्रष्टा, पालक इत्यादि माने जाते सर्वज्ञ ब्रह्मा, विष्णु इत्यादि से भी वह ईश्वर (महेश्वर) अधिक महिमावाले हैं, ऐसा प्रतिपादन करने के लिए योग सूत्रकार कहते हैं - "स एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् । ॥१-२६॥ सूत्रार्थ :- वह ईश्वर पूर्व पूर्व सर्ग में उत्पन्न हुए ब्रह्मा इत्यादि के भी गुरु हैं। क्योंकि ईश्वर कालकृतपरिच्छेद से रहित हैं। अर्थात् आदि और अंत से रहित हैं। इस सूत्र से यह अर्थ का बोधन किया कि ईश्वर अनादि सिद्ध पदार्थ होने से जैसे इस सर्ग के ब्रह्मादि के उपदेष्टा हैं। वैसे अतीत अनागत ब्रह्मादि के भी उपदेष्टा हैं। क्योंकि वे महेश्वर भगवान उस समय भी वही रुप में होते हैं। ब्रह्मादि द्विपरार्धादि काल से अवच्छिन्न हैं। इसलिए अपने-अपने आयुष्य के अवधि में अपने अपने कारण में शान्त होते हैं। ईश्वर "अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरः'' यह महाभारत के वाक्य अनुसार कारणरहित और अंतरहित होने से ब्रह्मादि के नाश के समय भी उसी रुप में स्थित होते हैं। पुनः सर्गकाल आता हैं तब उस ईश्वर के संकल्पानुसार -
प्रकृति पुरुषं चैव प्रविश्यात्मेच्छया हरिः । क्षोभयामास संप्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥
इस वाक्यानुसार प्रकृति में क्षोभ करते हैं। तथा उसके बाद "तत्त्वनेनेरितं विषमत्वं प्रयाति" इस श्रुति में कहे अनुसार प्रकृति के गुण का वैषम्य होता हैं । यह वैषम्य होने से क्रमशः श्रीसदाशिव, विष्णु और ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं । वे सभी अपने अपने आयुष का अवधि आने पर नष्ट हुए थे और इससे वेदादि के ज्ञान से रहित हुए थे। उनको उस सभी समय में भी जैसे के तैसे स्थिर होनेवाले वे श्री महेश्वर भगवान “यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै" इत्यादि श्रुति अनुसार वेदादि का उपदेश करते हैं। इसलिए ब्रह्मादि के गुरु या उपदेष्टा महेश्वर भगवान हैं।
योग का स्वरुप :- योग का स्वरुप बताते हुए पातंजल योगसूत्र में कहा है कि, योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१-२॥ (योगसूत्र)
सूत्रार्थ :- योग अर्थात् चित्तवृत्ति का निरोध अथवा चित्तवृत्ति की संस्कार शेष रुप अवस्था । यहाँ "योग" यह लक्ष्य निर्देश करनेवाला पद हैं। और “चित्त" यह लक्षण का निर्देश करनेवाला पद हैं।
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