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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परीशिष्ट-२, योगदर्शन
के कारणभूत जो रजोगुण, उसके लेशमात्र से भी रहित होने से जब चित्तसत्त्व अपने स्वभावसिद्ध प्रसादादि रुप से स्थित होता हैं । और इसलिए जब सत्त्वरुप बुद्धि तथा पुरुषरुप आत्मा जो अत्यंत विलक्षण हैं। उन दोनों के भेदज्ञानरुप जो विवेकसाक्षात्कार वही मात्र वृत्ति जिसकी रहती हैं ऐसा होता है। अर्थात् जब चित्तसत्त्व जिसको योगी लोग श्रेष्ठ प्रसंख्यान अथवा तत्त्वज्ञान कहते हैं वह धर्ममेघरुप समाधि को ही मात्र प्रिय मानकर सेवित होता प्रतीत होता हैं । तब वह चित्तसत्त्व एकाग्र हुआ कहा जाता हैं । एकाग्र अर्थात् एक है अग्र जिसका अर्थात् जैसे निर्वात स्थान पे रहे हुए दीपक की एक अखंडित शिखा चलती रहती हैं। वैसे जिसकी विवेकसाक्षात्काररुप वृत्ति अखंडित रुप से चलती रही हुई हैं वह।
(५)निरुद्ध :- जब विवेकख्यातिरुप वृत्तिसहित चित्तसत्त्व की समग्र वृत्तियाँ स्वयं मे लीन हो जाती हैं, तब वह वृत्तिमात्र के अभाववाला हुआ संस्कारशेष चित निरुद्ध कहा जाता हैं । पाँचो भूमिकाओं में यत्किञ्चित् वृत्तिनिरोध तो हैं । तथापि इन पांच में से अंतिम दो भूमिका का वृत्तिनिरोध संग्राह्य हैं । क्योंकि वृत्तिनिरोध ही जीवन्मुक्ति तथा विदेहमुक्ति को प्राप्त करानेवाला हैं। वहाँ एकाग्रभूमिका में जो वृत्तिनिरोध हैं उसे संप्रज्ञातयोग कहते हैं। और निरुद्धभूमिका के वृत्तिनिरोध को असंप्रज्ञात योग कहते हैं। संप्रज्ञातयोग यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करता हैं । अविद्यादि क्लेशो को क्षीण करता हैं । कर्मबंधन को शिथिल करता हैं तथा चित्त को निरोध के अभिमुख करता हैं । इसलिए इस संप्रज्ञात योग से तत्त्वज्ञान तथा जीवन्मुक्ति फल होता हैं।
इस संप्रज्ञातयोग से जो विवेकख्यातिरुप एक वृत्ति अनिरुद्ध होती हैं। वह भी वृत्ति होने से अनात्म हैं, ऐसा उसे मानकर परविराग के बल से छोड़ दी जाती हैं। तब वृत्तिमात्र का निरोध होने से चित्त संस्कारशेष होकर अंत में अपने कारण में लय प्राप्त करता हैं; इसलिए व्युत्थान के समय चित्तसत्त्व में अपने प्रतिबिंब को अर्पण करने से जैसे तद्प हुआ हो ऐसा दिखाई देता अपरिणामी चितिशक्तिरुप पुरुष, चित्तसत्त्व के अभाव में प्रतिबिंब बिना हुआ होने से स्वयं शुद्ध स्वरुप में स्थित हुआ ऐसा कहा जाता हैं। उस पुरुष के स्वरुपावस्थान में हेतुरुप चित्त की संस्कारशेष अवस्था असंप्रज्ञात योग हैं। इसलिए उस असंप्रज्ञायोग से चित्त काल उससे विदेहकैवल्य होता हैं। इसलिए, संप्रज्ञात योग और असंप्रज्ञातयोग ये दो "योग' शब्द से लक्ष्य हैं तथा क्षिप्तादिभूमिकागत वृत्तिनिरोध अलक्ष्य हैं । चित्त और उसकी वृत्तियों को पहचाने, तब ही उसके निरोध का उपाय प्राप्त होता हैं । और उपाय द्वारा निरोध करने से योग प्राप्त होता हैं । उसका स्वरुप आगे बताया हैं।
तदा द्रष्टुः स्वरुपेऽवस्थानात् ॥१-३॥ (योगसूत्र )
सूत्रार्थ :- व्युत्थानदशा में दृश्यरुप वृत्ति के योग से द्रष्टव्य धर्मवाला माना जाता शुद्ध चितिशक्तिरुप पुरुष असम्प्रज्ञातयोगकाल में अपने स्वभावसिद्ध निर्विशेष चिन्मात्रस्वरुप में स्थित होता हैं । असंप्रज्ञातयोग काल में पुरुष अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव में स्थित होता हैं। वास्तव में देखने से पुरुष सदासर्वदा मुक्त तथापि चित्तरुप उपाधि के संबंध से बद्धावस्था को प्राप्त हुआ कहा जाता हैं । तथा उस चित्त का अपाय होने से उपाधि का नाश होने से मुक्तावस्था को प्राप्त हुआ कहा जाता हैं। जैसे कि, जपाकुसुम उपाधि के संनिधान से शुद्ध स्फटिक। श्री कपिलऋषि ने कहा है कि, "तन्निवृत्तावुपशांतोपरागः कुसुमवच्च मणिः"
यही पुरुषार्थ हैं। पुरुष का स्वरुप से अवस्थान जो कैवल्य कहा जाता हैं, वह पुरुषार्थ रुप हैं । _ शंका :- जब असंप्रज्ञातकाल में ही पुरुष में दुःख का अभाव होता हैं । अर्थात् पुरुष का स्वस्वरुप में अवस्थान होता हैं, तब उसकी अन्य अवस्था में अर्थात् व्युत्थानदशा में पुरुष में दुःख होता हैं । अथवा पुरुष की
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