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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
के अनुरूप माध्व मत भी शुद्ध सत्त्व की सत्ता स्वीकार करता हैं, इससे मुक्त जीवों के लीलामय विग्रह निर्मित होते हैं। सत्त्वाभिमानी श्री, रजोऽभिमानी भू तथा तमोभिमानिनी दुर्गा होती हैं। महत्तत्त्वादि अन्य द्रव्यों की कल्पना सांख्य तथा पुराणों के अनुरूप ही हैं। ___साधनमार्ग-श्रवण, मनन, ध्यान के साथ तारतम्य-परिज्ञान तथा पञ्चभेद ज्ञान का होना अत्यावश्यक है। जगत् के समस्त पदार्थ एक दूसरे से बढकर हैं। ज्ञान-सखादि का अवसान भगवान में ही होता है। यही तारतम्य ज्ञान है। भेद पाच प्रकार का होता है-(१) ईश्वर का जीव से भेद, (२) ईश्वर का जड से भेद, (३) जीव का जड पदार्थ से भेद, (४) जीव का दूसरे जीव से भेद, तथा (५) एक जड पदार्थ का दूसरे जड पदार्थ से भेद । इन पञ्चविध भेदों का परिज्ञान माध्वमत में मुक्ति-साधक है। उपासना दो प्रकार की होती है-सन्ततशास्त्राभ्यासरूपा और ध्यानरूपा । अधिकारी भेद से उपासना का उपयोग होता है। 'ध्यान' से तात्पर्य, इतर विषयों के तिरस्कारपूर्वक भगवद्विषया अखण्ड स्मृति से है ( ध्यानं च इतरतिरस्कारपूर्वकभगवद्विषकाखण्डस्मृतिः-म० सि० सा०, पृ० १६९)। जीव मोक्ष के लिए भी परमात्मा के अधीन रहता है। भगवान् के नैसर्गिक अनुग्रह हुए बिना परतन्त्र जीव साधारण कार्यों का भी सम्पादन नहीं कर सकता, मुक्ति की कथा तो दूर ठहरी । अपरोक्ष ज्ञान के अनन्तर परम भक्ति उत्पन्न होती है और उसके बाद परम अनुग्रह का उदय होता हैं, अनन्तर मोक्ष का जन्म होता है। मोक्ष चार प्रकार का है-कर्मक्षय, उत्क्रान्ति, अविरादिमार्ग और भोग । सालोक्य, सामीप्य,सारूप्य तथा सायुज्य भेद से भोग चार प्रकार का है। भगवान् में प्रवेश कर उन्हीं के शरीर से आनन्द का भोग करना 'सायुज्य' है, जो समग्र भोगों में श्रेष्ठ माना जाता है। इन मुक्त जीवों में भी आनन्द का तारतभ्य मानना माध्वमत की विशिष्ट कल्पना है। हनुमान् और भीम के अनन्तर वायु के तृतीय अवतारभूत श्री मध्वाचार्य के मत का संक्षिप्त परिचय इस पद्य में बड़ी सुन्दरता के साथ दिया गया है
श्रीमन्मध्वमते हरिः परतमः सत्यं जगत् तत्त्वतो भेदो जीवगणा हरेरनुचरा नीचोच्चभावं गताः । मुक्तिनैजसखानभतिरमला भक्तिश्च तत्साधनमक्षादित्रितयं प्रमाणमखिलाम्नायैकवेद्यो हरिः॥ (६) भेदाभेद सिद्धांत ३९९) :श्रीभास्कराचार्य ने 'भेदाभेद' सिद्धांत के समर्थन के लिए ब्रह्मसूत्र के उपर "भास्कर" भाष्य की रचना की हैं। जैसे वेदांत मत में ब्रह्म के सगुण-निर्गुण भेद हैं, एक आकाश के घटाकाश-महाकाश भेद हैं, काल के (३९९) भेदाभेदमतम् :- अस्य भेदाभेदमतस्याऽऽदिप्रवर्तको जन्मदाता आचार्यप्रवरः श्रीभास्कर एव श्रूयते । अयञ्च श्रीभास्कराचार्यः (८२० ईसवीये वर्षे) व्यासोदितस्य ब्रह्मसूत्रस्य भास्करभाष्यकृर्तत्वेन प्रसिद्धिं लब्धवान् । श्रीभास्कराचार्यमते वेदान्तमतसिद्धसगुणनिगुर्णभेदवत् घटाकाशमहाकाशवत् खण्डकालमहाकालवत् प्राच्यादिदिङ्महादिग्वच्च यथास्ति अविद्योपाधिरूपकारणवशादेव दृष्टान्तगतो भेदस्तथैव दार्टान्तस्थलेऽपि चास्ति जीवात्मपरमात्मनोरूपाधिकृतो भेद इति नूनं विभाव्यताम् । तात्त्विकदृष्ट्या विचार्यमाणे तु अविद्योपाधौ निराकृते सति 'जीवो ब्रह्मैव नापरः' इति शङ्कराचार्यसिद्धान्त एव समागच्छति । 'भेददृष्टिरविद्येयम्' इति श्रुतिरपि जीवपरमात्मनोरभेदमेव प्रतिपादयति बोधयति च । तस्मादविद्योपाधिनिरसनं नितान्तमावश्यकम्, तस्मिन् सति अर्थत एवाऽभेदो जायते इति मन्तव्यम् । एवमेतस्मिन् मते ज्ञानकर्मसमुच्चयवादोऽङ्गीकृतो वर्तते, यत एतस्मिन् मते 'समुच्चिताभ्यामेव ज्ञानकर्मभ्यामविद्यानिवृत्तिद्वारेण अपवर्गो व्यज्यते नान्यतरेण' इति । अस्मिन् मतेऽविद्याया अनादित्वेन तस्या नाशाऽसम्भवेन ब्रह्मणः सदैव सगुणत्वधर्मावच्छिन्नत्वेन सगुणत्वमेव विज्ञेयं न तु निर्गुणत्वमपि । तात्त्विकदृष्ट्याऽऽनुभविकदृष्टिकोणतो विचार्यमाणे चैतन्मते तत्त्वद्वयमेव खलु स्वीक्रियते-१. स्वतन्त्रं तत्त्वमेकम्, २. परतन्त्रतत्त्वं च द्वितीयम् । तत्रापि स्वतन्त्रतत्त्वभूतः प्रभूतो भगवान् विष्णुः, परतन्त्रतत्त्वञ्च जीव इति । उक्तञ्च
'स्वतन्त्रं परतन्त्रं च द्विविधतत्त्वमिष्यते । स्वतन्त्रो भगवान् विष्णुर्निर्दोषोऽशेषसद्गुणः' ॥-सर्वदर्शनसं० ।
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