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षड्दर्शन समुच्चय भाग-१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
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पद-वाच्य हैं। वे जीव, जड और प्रकृति से अत्यन्त विलक्षण हैं। ज्ञान, आनन्द आदि कल्याण गुण ही भगवान् के शरीर हैं। अतः शरीरी होने पर भी नित्य तथा सर्वस्वतन्त्र हैं । वे एक होकर भी नाना रूप धारण करते हैं। इनके समस्त रूप स्वयं परिपूर्ण हैं, अर्थात् उनके मत्स्यादि अवतार स्वयं परिपूर्ण हैं । (माध्व बृहद्भाष्य) मत्स्य, कूर्मादि स्वरूपों से, कर-चरणादि अवयवों से, ज्ञानानन्दादि गुणों से भगवान् अत्यन्त अभिन्न है। अत एव भगवान् तथा भगवान् के अवतारों में भेद-दृष्टि रखना नितान्त अनुचित है। ___ लक्ष्मी-परमात्मा की शक्ति है । वह केवल, परमात्मा के ही अधीन रहती है; अतः उससे भिन्न है । ["परमात्मभिन्ना तन्मात्राधीना लक्ष्मीः " (म.सि.सा.पृ. २६)] इस प्रकार माध्व मत में तन्त्र मत के विपरीत शक्ति और शक्तिमान में पूर्ण सामञ्जस्य या अभेद भाव नहीं रहता। लक्ष्मी भगवान् से गुणादिकों में कुछ न्यून ही रहती है। परमात्मा के समान ही लक्ष्मी नित्या मुक्ता हैं, नाना-रूपधारिणी भगवान् की भार्या हैं। जिस प्रकार परमात्मा अप्राकृत दिव्य शरीर से सम्पन्न हैं, लक्ष्मी भी उसी प्रकार अप्राकृत देह धारणी हैं। ब्रह्म, रूद्रादि अन्य देवतागण शरीर के क्षरण (नाश) होने से 'क्षर' हैं, परन्तु लक्ष्मी दिव्यविग्रहवती होने से 'अक्षरा' हैं। परमात्मा देश, काल, तथा गुण इन तीनों वस्तुओं के द्वारा अपरिच्छिन्न हैं, परन्तु लक्ष्मी परमात्मा से गुण में न्यून हैं : तथापि देश और काल की दृष्टि से उनके समान ही व्यापक हैं । [द्वावेव नित्यमुक्तौ तु परमः प्रकृतिस्तथा । देशतः कालतश्चैव समव्याप्तावुभावजी (भा.ता.नि.)]
जीव-अज्ञान,मोह,दुःख, भयादि दोषों से युक्त तथा संसारशील होते हैं। ये प्रधानतया तीन प्रकार के होते हैं-मुक्तियोग्य, नित्यसंसारी और तमोयोग्य । मुक्ति प्राप्त करने के अधिकारी जीव देव, ऋषि, पितृ, चक्रवर्ती तथा उत्तम मनष्य रूप से पांच प्रकार होते हैं। नित्यसंसारी जीव सदा सख-द:ख के साथ मिश्रित रहता है और स्वीय कर्मानुसार ऊँच-नीच गति को प्राप्त कर स्वर्ग, नरक तथा भूलोक में विचरण करता है। इस कोटि के जीव 'मध्यम मनुष्य' कहे जाते हैं। वे कभी मुक्ति नहीं पाते । तमोयोग्य जीव चार प्रकार के होते हैं, जिसमें दैत्य, राक्षस तथा पिशाचों से साथ अधम मनुष्यों की गणना है। इस प्रकार गुणों के तारतम्य के कारण मनुष्य तीनों श्रेणियों में अन्तर्भुक्त किया गया है। संसार में प्रत्येक जीव अपना व्यक्तित्व पृथक् बनाये रहता है। वह अन्य जीवों से भिन्न हैं, तथा सर्वज्ञ परमात्मा से तो सुतरां भिन्न है। संसार-दशा में ही जीवों में तारतम्य नहीं हैं, प्रत्युत मुक्तावस्था में भी वह भिन्नता विद्यमान रहती हैं, मुक्त पुरुष आनन्द का अनुभव अवश्य करता हैं, परन्तु माध्वमत में आनन्दानुभूति में भी परस्पर तारतम्य होता हैं। मुक्त जीवों के ज्ञानादि गुणों के समान उनके आनन्द में भी भेद है। यह सिद्धान्त माध्वमत की विशेषता है। [गीता मध्वभाष्य-म.सि.सा. पृ. ३२] मुक्तावस्था में जीव परम साध्य को प्राप्त कर लेता है। (निरंजनः परमं साम्पमुपैति-मुण्डक, ३।१३)। इस श्रुति का तात्पर्य प्राकृतविषयक है, अभेदविषयक नहीं । भगवान् के साथ चैतन्यांश को लेकर ही जीव की एकता प्रतिपादित की जाती हैं, परन्तु समस्त गुणों पर दृष्टिपात करने से दोनों का पृथक्त्व ही प्रमाणसिद्ध हैं। (म.सि.सा. पृ. ३०)
'अव्याकृत आकाश' न्यायवैशेषिक का 'दिक्' हैं, जो सृष्टि और प्रलय में भी विकारशून्य रहता है। यह भूताकाश से सर्वथा भिन्न हैं, क्योंकि उत्पन्न होने से भूताकाश अनित्य हैं. परन्त अव्याकत आकाश नित्य. एक तथा व्यापक है। इसके अभाव में समस्त जगत् एक निबिड पिण्ड बन जाता है। लक्ष्मी इसकी अभिमानिनी देवता है। 'प्रकृति' साक्षात् या परम्परया विश्व का उपादान कारण है या जडरूपा, नित्या, व्याप्ता, सर्व-जीवलिंग-शरीररूपा है। रमा इसकी अभिमानिनी देवता है। इस प्रकार द्वैतवादी माध्वों के मत में इस जगत् के जन्मादि व्यापार में परमात्मा केवल निमित्त कारण है और प्रकृति उपादान कारण । 'गुणत्रय' प्रसिद्ध हैं। अन्य वैष्णव मतों
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