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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन
जो अद्वैत सिद्धांत से बिलकुल भिन्न हैं । श्रीमाध्वाचार्य जीव और ब्रह्म दोनों को सत्य मानते हैं। उपरांत, उनके मत में विष्णु ही परमतत्त्व हैं और जगत सदैव सत्य हैं। जीव और परमात्मा का भेद वास्तविक हैं । परमात्मा स्वामी और जीव उनका दास हैं। जीव अपने कर्मो के अनुसार नीच उच्चगति को प्राप्त करता हैं। अपने शाश्वतसुख की अनुभूति करना यही मुक्ति हैं । और वहाँ पहुँचने का उपाय भक्ति हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान और शाब्द ये तीन ही प्रमाण हैं। और वेदो में एकमात्र विष्णु का ही विवेचन किया जाता हैं। श्रीमाध्वाचार्य के कथनानुसार जीव को कुछ बातो में ईश्वर के समान मानना और कुछ बातों में ईश्वर से भिन्न मानता वह असंगत हैं। इस प्रकार से "मायावाद' का सिद्धांत भी सर्वथा निराधार हैं। जगत एक मजबूत सत्य हैं, जिसका अपलाप नहीं हो सकता ।
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• माध्व पदार्थ -मीमांसा :- माध्वमत में दस पदार्थ माने जाते हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य और अभाव । इन पदार्थों का विशेष वर्णन श्रीपद्मनाभ ने अपने 'मध्वसिद्धान्तसार 'में विशदरूपेण किया हैं। इनमें कतिपय पदार्थों के वर्णन में न्याय वैशेषिक के साथ साम्य होने पर भी अधिकांश में माध्वमत की विशेषता हैं। 'द्रव्य' बीस प्रकार का माना जाता हैं- परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत आकाश, प्रकृति, गुणत्रय, महत् तत्त्व, अहंकार तत्त्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल और प्रतिबिम्ब । 'गुण' के अनेक प्रकार हैं, जिसमें वैशेषिक गुणों के अतिरिक्त शम, दम, कृपा, तितिक्षा और सौन्दर्य आदि की भी गणना हैं। 'कर्म' तीन प्रकार का है :-विहित, निषिद्ध तथा उदासीन । उदासीन कर्म परिस्पन्दानात्मक हैं जिसके भीतर उत्क्षेपण, अपक्षेपण आदि नानाविध कर्मों का अन्तर्भाव होता हैं । नित्यानित्य भेद तथा जाति-उपाधि भेद से 'सामान्य' दो प्रकार का होता है । भेद के अभाव होने पर भी भेदव्यवहार के निर्वाहक पदार्थ को 'विशेष' कहते है। [भेदाभावेऽपि भेदव्यवहारनिर्वाहका अनन्ता एव विशेषाः '(-मध्वसिद्धांतसार )] परमात्मा में भी विशेष को स्वीकार करना पड़ता हैं। विज्ञानानन्दरूप परमात्मा में इस विशेष के कारण भेद दृष्टिगोचर होता हैं। यह विशेष जगत् के समस्त पदार्थों में रहता हैं, अतएव अनन्त है । विशेषण से संयुक्त पदार्थ को 'विशिष्ट' कहते हैं । हस्त पादादि से व्यतिरिक्त समग्र अवयवविशिष्ट पदार्थ 'अंशी ' हैं ।'सादृश्य' तथा 'अभाव' की कल्पना में कोई नवीनता नहीं है। 'शक्ति' चार प्रकार की है- (१) अचिन्त्य शक्ति, (२) आधेय शक्ति, (३) सहज शक्ति और (४) पद शक्ति । 'अचिन्त्य शक्ति' अघटितघटना-पटीयसी होती हैं। और भगवान् विष्णु में ही निवास करती हैं । भगवान् में ही विचित्र कार्य सम्पादन का अलौकिक सामर्थ्य रहता है। परमात्मा में विषय गुणों की सार्वकालिक स्थिति इसी शक्ति के कारण हैं। लक्ष्मी, वायु आदि की शक्तियाँ परमात्मा की अपेक्षा कोटिगुण न्यून होती हैं । (२) दूसरे के द्वारा स्थापित शक्ति को 'आधेय शक्ति' कहते हैं (अन्याहितशक्तिराधेयशक्तिः) । विधिवत् प्रतिष्ठा करने में प्रतिमा में जो देवता का सान्निध्य उत्पन्न होता है वही 'आधेय शक्ति' है । कामिनी के चरणाघात से अशोक का पुष्पित होना और औषधलेप से कांस्य पात्र का स्वच्छ हो जाता इसी शक्ति से सम्पन्न होता है । (३) कार्यमात्र के अनुकूल स्वभाव-रूपा शक्ति 'सहज शक्ति' है। यह सर्व-पदार्थ-निष्ठा होती हैं। पदार्थ-भेद से यह नित्य भी होती है तथा अनित्य भी । (४) पदपदार्थ में वाचक- वाच्य - सम्बन्ध‘पदशक्ति’कहलाता है। मुख्या और परम मुख्या भेद से यह दो प्रकार की होती है। 'इन्द्र' शब्द का ‘पुरन्दर' अर्थ 'मुख्या' वृत्ति से और 'परमेश्वर' अर्थ 'परम मुख्या' वृत्ति से होता है ।
परमात्मा-साक्षात् विष्णु हैं । परमात्मा अनन्तगुण - परिपूर्ण हैं, अर्थात् भगवान् के गुण अनन्त हैं तथा उनमें प्रत्येक गुण निरवधिक और निरतिशय हैं। उनमें सजातीय उभयविध आनन्त्य है । उत्पत्ति, स्थिति, संहार, नियमन, ज्ञान, आवरण, बन्ध और मोक्ष- इन आठों के कर्ता भगवान् ही हैं । वे सर्वज्ञ हैं तथा परम मुख्या वृत्ति से समस्त
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