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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन भाष्य" की रचना की हैं। इस मत को भेदाभेद वाद या स्वाभाविक भेदाभेदवाद भी कहते हैं। ब्रह्म सर्व का आधार हैं, सर्व का नियामक हैं, सर्व में व्यापक हैं- इस अर्थ में यहाँ अद्वैत हैं। क्योंकि ब्रह्म से अतिरिक्त कोई सृष्टि नहीं हैं। फिर भी इस मतानुसार ब्रह्म का चेतन और अचेतन से स्पष्ट भेद हैं। चेतन के अणुता इत्यादि धर्म और अचेतन के स्थूलत्वादि धर्मो में वे जैसे हैं वैसे सत्यरुप में अपने में समा के रहे हुए हैं। ४६० श्रीनिम्बकाचार्य के अधिकांश दार्शनिक सिद्धांत तो श्री रामानुजाचार्य को मिलते आते हैं। परन्तु ब्रह्म और जीव का परस्पर क्या संबंध हैं, उसमें मतभेद हैं। श्रीरामानुजाचार्य जीव और ब्रह्म में अभेद मानते हैं, जब कि श्री निम्बाकाचार्य कहते हैं कि, जीव और ब्रह्म में एक दृष्टि से अभेद के साथ दूसरी दृष्टि से भेद भी हैं। और वह भेद प्रत्येक अवस्था में यावत् मोक्ष अवस्था में भी होते हैं। ईश्वर प्रत्येक अवस्था में जीव का नियामक हैं और उसको हंमेशां ईश्वर की प्रेरणानुसार चलना पडता हैं। वैसे ही जीव जो अच्छे-बुरे कर्म करता हैं, उसका आधार भी ईश्वर की प्रेरणा ही हैं। जीव का उद्धार तब होता हैं कि जब ईश्वर का अनुग्रह हो और उस अनुग्रहप्राप्ति का एकमात्र उपाय भगवान की शरणागति हैं । श्री निम्बार्काचार्य की पदार्थ मीमांसा : श्री निम्बार्काचार्य-सम्मत चित्, अचित् तथा ईश्वर का स्वरूप श्री रामानुजाचार्य मत के अनुरूप ही हैं। चित् या जीव ज्ञानस्वरूप हैं, उसका स्वरूप ज्ञानमय हैं । इन्द्रियों की सहायता के बिना इन्द्रियनिरपेक्ष जीव विषय का ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ है और जीव के विषय में 'प्रज्ञानधर्मः', 'स्वयंज्योतिः ' तथा 'ज्ञानमय: '-आदि शब्दों का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया हैं । जीव ज्ञान का आश्रय - ज्ञाता भी हैं । ज्ञानस्वरुपं च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम् । अणुं ही जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहु: ॥ ( दशश्लोकी - १ ) अत: वह ज्ञानस्वरूप तथा ज्ञानाश्रय दोनों एक ही काल में उसी प्रकार है, जिस प्रकार सूर्य प्रकाशमय भी है तथा प्रकाश का आश्रय भी हैं। जीव का स्वरूपभूत ज्ञान तथा गुणभूत ज्ञान यद्यपि ज्ञानाकारतया अभिन्न ही हैं, तथापि इन दोनों में धर्मधर्मिभाव से भिन्नता हैं । जीव कर्ता हैं । प्रत्येक दशा में जीव कर्ता ही रहता हैं। संसारी दशा में कर्ता होना तो अनुभवगम्य हैं, परन्तु मुक्त हो जाने पर भी जीव में कर्तृत्व का होना श्रुतिप्रतिपादित है । 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ' 'स्वर्गकामो यजेत्’-आदि श्रुतियाँ जिस प्रकार संसार दशा में आत्मा में कर्तृत्व प्रतिपादित करती हैं, उसी प्रकार 'मुमुक्षुर्ब्रह्मोपासीत', 'शान्त उपासीत' - आदि श्रुतियाँ मुक्तावस्था में भी उपासना करने का प्रतिपादन करती हैं और मुक्त आत्मा को कर्ता बतलाती हैं । 'अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते' इस गीतावाक्य में प्रकृति सृष्टि की कर्त्री मानी जाती हैं तथा कर्ता होने के अभिमानवाला आत्मा अहंकारविमूढ कहा जाता हैं। इस वाक्य का अभिप्राय यह नहीं हैं कि जीव में कर्तृत्व का निषेध हैं, प्रत्युत इसका अर्थ तथा तात्पर्य दूसरा ही है । संसार की प्रवृत्ति में प्राकृत गुण से संमूढ आत्मा प्रकृति के गुणों द्वारा प्रयुक्त होकर ही प्रवृत्त होता हैं। इतना ही इसका तात्पर्य हैं, आत्मा के कर्ता होने का कथमपि निषेध 'वेदान्तकौस्तुभ'-नाम्नी टीकां कृतवान् । तत्पश्चात्कालावच्छेदेनैव च १६०० ईसवीये काले स्वीयं जीवनं सफलं कर्तुकामः श्रीकेशवभट्टः 'वेदान्तकौस्तुभ' - नाम्न्याः श्रीनिवासविरचिताया विस्तृताया व्याख्यास्वरूपायाष्टीकाया उपरि- १. 'कौस्तुभप्रभा' - नाम्नीं टीकां लिखितवान्, २. ‘श्रूत्यन्तसुरद्रुमः ' -श्रीपुरुषोत्तमाचार्यस्य, ३. 'सिद्धान्तजाह्नवी' - श्रीदेवाचार्यस्य, इत्यादिरूपेणेमे सर्वेऽपि ग्रन्थाः सन्ति श्रीनिम्बार्काचार्योदितस्य द्वैताऽद्वैतवादस्य प्रवर्धकाः पुष्टिकरास्तुष्टिकराश्चेति विज्ञेयम् । एवमन्येऽपि सन्ति एवंविधा ग्रन्थाः । तथापि सर्वे तु नैतादृशा: । (दर्शनशास्त्रस्येतिहास:) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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